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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


मैंने लज्जित होकर नोट जेब में रख लिया और घोड़े को एड़ लगाते हुए पूछा, ''तुम्हें इस आँधी में जरा भी डर न मालूम होता था?''

औरत मुस्कुराई, 'डर किस वात का? भगवान तो सभी जगह हैं। अगर वह मारना चाहें, तो क्या यहीं नहीं मार सकते? मेरा आदमी तो घर आकर बैठे-बैठे चल दिया। आज वह होता तो तुम इस तरह गजनपुर अकेले न जा पाते। जाकर तुम्हें पहुँचा आता। तुम्हारी खिदमत करता।''

घोड़ा उड़ा। मेरा दिल उससे ज्यादा तेजी से उड़ रहा था, जैसे कोई मुफ़लिस सोने का डला पाकर दिल में एक तरह की उड़ान का एहसास करता है, वही हालत मेरी थी। उस दहकान औरत ने मुझे वह तालीम दी, जो दर्शनशास्त्र और अलौकिक के दफ्तरों से भी न हासिल हुई होती। मैं उस मुफ़लिस की तरह उस सोने के डले को गिरह में वाँधता हुआ एक ग़ैर अहंकारहीन नियामत के गरूर से प्रसन्न इस अंदेशे से भयभीत कि कहीं यह असर दिल से मिट न जाए, उड़ा चला जाता था। बस यही फ़िक्र थी कि इस स्वर्ण-खंड को दिल के किसी गोशे में छुपा लूँ जहाँ किसी लोभी की उस पर निगाह न पड़े।

गजनपुर अभी पाँच मील से कम न था। रास्ता निहायत पेचीदा, बीहड़, पत्ते व फल-रहित। घोड़े को रोकना पड़ा। तेजी में जान का खतरा था। आहिस्ता सँभलता हुआ चला जाता था कि आसमान पर बादल घिर आया। कुछ-कुछ तो पहले ही से छाया हुआ था। फिर अब उसने एक अजीब सूरत इख्तियार की। बिजली की चमक और मेघ की गरज शुरू हुई। फिर पूर्व क्षितिज की तरफ़ से ज़र्द रंग के अंबर की एक नई तह उस मटियाले रंग पर लेप करती हुई तेजी से ऊपर की तरफ दौड़ती नजर आई। मैं समझ गया, ओले हैं। फागुन के महीने में इस रंग के बादल और गरज की यह भयानक गड़गड़ाहट ओले बरसने की निशानी है। घटा सर पर बढ़ती चली जाती थी। यकायक सामने एक हथेली की तरह मैदान आ गया, जिसके परले सिरे पर गजनपुर के ठाकुरद्वारे का कलस साफ़ नज़र आ रहा था। कहीं किसी दरख्त की भी आड़ न थी, लेकिन मेरे दिल में मुतलक कमज़ोरी न थी। ऐसा महसूस होता था कि मुझ पर किसी का साया है; जो मुझे हर आफ़तों की जद (विपत्ति के आघातों) से महफूज रखेगा।

बादल की जर्दी हर लम्हा बढ़ती जाती थी। शायद घोड़ा इस खतरे को समझ रहा था। वह बार-वार हिनहिनाता था, और उड़कर खेतों से बाहर निकल जाना चाहता था। मैंने भी देखा, रास्ता साफ़ है। लगाम ढीली कर दी। घोड़ा उड़ा। मैं उसकी तेजी का लुत्फ उठा रहा था। दिल में खौफ़ का एहसास न था।

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