कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
कौशल्या को सीता की बातों से प्रसन्नता भी हुई और दुःख भी हुआ। दुःख तो यह हुआ कि यह सुख और ऐश्वर्य में पली हुई लड़की यों विपत्ति में जीवन के दिन काट रही है। प्रसन्नता यह हुई कि उसके विचार इतने ऊंचे और पवित्र हैं। बोलीं- धन्य हो बेटी, इसी को स्त्री का पातिव्रत कहते हैं। यही स्त्री का धर्म है। ईश्वर तुम्हें सुखी रखे, और दूसरी स्त्रियों को भी तुम्हारे मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे। ऐसी देवियां मनुष्य के लिये गौरव का विषय होती हैं। उन्हीं के नाम पर लोग आदर से सिर झुकाते हैं। उन्हीं के यश घर-घर गाये जाते हैं।
चारों भाई जब गले मिल चुके, तो रामचन्द्र ने भरत से पूछा- कहो भैया, तुम काश्मीर से कब आये? पिताजी तो कुशल से हैं? तुम उनको छोड़कर व्यर्थ चले आये, वह अकेले बहुत घबरा रहे होंगे?
भरत की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। भर्राई हुई आवाज में बोले- भाई साहब, पिताजी तो अब इस संसार में नहीं हैं। जिस दिन सुमन्त्र रथ लेकर वापस हुए, उसी रात को वह परलोक सिधारे। मरते समय आप ही का नाम उनकी जिह्वा पर था।
यह दुःखपूर्ण समाचार सुनते ही रामचन्द्र पछाड़ खाकर गिर पड़े। जब तनिक चेतना आयी तो रोने लगे। रोते-रोते हिचकियां बंध गयीं। हाय! पिता जी का अन्तिम दर्शन भी प्राप्त न हुआ! अब रामचन्द्र को ज्ञात हुआ कि महाराज दशरथ को उनसे कितना प्रेम था। उनके वियोग में प्राण त्याग दिये। बोले- यह मेरा दुर्भाग्य है कि अन्तिम समय उनके दर्शन न कर सका। जीवन भर इसका खेद रहेगा। अब हम उनकी सबसे बड़ी यही सेवा कर सकते हैं कि अपने कामों से उनकी आत्मा को प्रसन्न करें। महाराज अपनी प्रजा को कितना प्यार करते थे! तुम भी प्रजा का पालन करते रहना। सेना के प्रसन्न रहने ही से राज्य का अस्तित्व बना रहता है। तुम भी सैनिकों को प्रसन्न रखना। उनका वेतन ठीक समय पर देते रहना। न्याय के विषय में किसी के साथ लेशमात्र भी पक्षपात न करना हर एक काम में मन्त्रियों से अवश्य परामर्श लेना और उनके परामर्श पर आचरण करना। निर्धनों को धनियों के अत्याचार से बचाना। किसानों के साथ कभी सख्ती न करना। खेती सिंचाई के लिए कुएं, नहरें, ताल बनवाना। लड़कों की शिक्षा की ओर से असावधान न होना। और राज्य के कर्मचारियों की सख्ती से निगरानी करते रहना अन्यथा ये लोग प्रजा को नष्ट कर देंगे।
भरत ने कहा- भाई साहब! मैं यह बातें क्या जानूं। मैं तो आपकी सेवा में इसीलिए उपस्थित हुआ हूं कि आपको अयोध्या ले चलूं। अब तो हमारे पिता भी आप ही हैं। आप हमें जो आज्ञा देंगे, हम उसे बजा लायेंगे। हमारी आपसे यही विनती है, इसे स्वीकार कीजिये। जब से आप आये हैं, अयोध्या में वह श्री ही न रही। चारों ओर मृत्यु की-सी नीरवता है। लोग आपको याद करके रोया करते हैं। अब तक मैं सबको यह आश्वासन देता रहा हूं कि रामचन्द्र शीघ्र वापस आयेंगे। यदि आप न लौटेंगे, तो राज्य में कुहराम मच जायगा और सारा दोष और कलंक मेरे सिर पर रखा जायगा।
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