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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग

2. रंगीले बाबू

बाबू रसिकलाल को मैं उस वक्त से जानता हूँ जब वह लॉ कॉलेज में पढ़ते थे। मेरे सामने ही वह वकील हुए और आनन-फानन चमके। देखते-देखते बँगला बन गया, जमीन खरीद ली, मोटर रख ली और शहर के रईसों में शुमार होने लगे, लेकिन मुझे न-जाने क्यों उनके रंग-ढंग कुछ वहुत जँचते न थे। मैं यह नहीं देख सकता कि कोई भला आदमी खामखाह टेढ़ी टोपी लगाकर निकले या सुरमा लगाकर, माँग निकालकर, मुँह को पान से फुलाकर, गले में मोतिया या बेले के गजरे डाले, तंजेब का चुन्नटदार कुरता और महीन धोती पहने बाजार में कोठों की ओर ताक-झाँक करता, ठट्टे मारता निकले। मुझे उससे चिढ़ हो जाती है। वह मेरे पास म्यूनिसिपल मेम्बरी के लिए वोट माँगने आए तो कभी न दूँ, उससे याराना निभाना तो दूर की बात है। भले आदमी को जरा गंभीर, जरा सादगी-पसंद देखना चाहता हूँ। मुझे अगर किसी मुक़दमे में वकील करना पड़े तो मैं ऐसे आदमी को कभी न करूँ, चाहे वह रासबिहारी घोष ही का-सा कानूनदाँ क्यों न हो। रसिकलाल इसी तरह के रंगीले आदमी हैं। उनकी तर्कशक्ति ऊँचे दर्जे की है, मानता हूँ। जिरह भी अच्छी करते हैं, यह भी मुझे स्वीकार है, लेकिन सीधी टोपी लगाने और सीधी चाल चलने से उनकी वकालत कुछ ठंडी न पड़ जाएगी। मेरा तो ख्याल यह है कि बाँकपन छोड़कर भले आदमी बन जएँ तो उनकी प्रैक्टिस दूनी हो सकती है, लेकिन अपने को क्या पड़ी है कि किसी की बातों में दखल दें? जब कभी उनका सामना हो जाता है तो मैं दूसरी ओर ताकने लगता हूँ या किसी गली में हो रहता हूँ। मैं सड़क पर उनसे बातें करना मुनासिब नहीं समझता। क्या हुआ वह नामी वकील हैं और मैं बेचारा स्कूल-मास्टर हूँ? मुझे उनसे किसी तरह का द्वेष नहीं। उन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा है जो मैं उनसे जलूँ? मेरी तो वह बड़ी इज़्ज़त और खातिर करते हैं। अपनी लड़की की शादी में मैं उनसे दरियाँ और दूसरा सामान माँगने गया था। उन्होंने दो ठेले-भर दरियाँ, कालीनें, जाजिम, चौकियाँ, मसनदें भेज दीं। नहीं, मुझे उनसे जरा भी द्वेप नहीं - बहुत दिनों के परिचय के नाते मुझे उनसे स्नेह है, लेकिन उनका यह बाँकपन मुझे नहीं अच्छा लगता। वह चलते हैं तो ऐसा जान पड़ता है, जैसे दुनिया को ललकारते चलते हों - देखूँ मेरा कोई क्या कर सकता है? मुझे किसी की परवाह नहीं है। एक बार मुझे स्टेशन पर मिल गए। लपककर मेरे कंधे पर हाथ ही तो रख दिया- ''आप तो मास्टर साहब, कभी नज़र ही नहीं आते, कभी भला साल में एक-आध बार तो दर्शन दे दिया कीजिए।''

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