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कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
शहर इन्दौर से तीन मील दूर उत्तर की तरफ घने पेड़ों के बीच में एक तालाब है जिसके चाँदी-जैसे चेहरे से काई का हरा मखमली घूँघट कभी नहीं उठता। कहते हैं किसी जमाने में उसके चारों तरफ पक्के घाट बने हुए थे मगर इस वक्त तो सिर्फ यह जनश्रुति बाकी थी जो कि इस दुनिया में अकसर ईंट-पत्थर की यादगारी से ज्यादा टिकाऊ हुआ करती है। तालाब के पूरब में एक पुराना मन्दिर था, उसमें शिव जी राख की धूनी रमाये खामोश बैठे हुए थे। अबाबीलें और जंगली कबूतर उन्हें अपनी मीठी बोलियाँ सुनाया करते। मगर उस वीराने में भी उनके भक्तों की कमी न थी। मंदिर के अन्दर भरा हुआ पानी और बाहर बदबूदार कीचड़, इस भक्ति के प्रमाण थे। वह मुसाफिर जो इस तालाब में नहाता उसके एक लोटे पानी से अपने ईश्वर की प्यास बुझाता था। शिव जी खाते कुछ न थे मगर पानी बहुत पीते थे। उनकी न बुझनेवाली प्यास कभी न बुझती थी।
तीसरे पहर का वक्त था। क्वांर की धूप तेज थी। कुंवर इन्दरमल अपने हवा की चालवाले घोड़े पर सवार इन्दौर की तरफ से आए और एक पेड़ की छाया में ठहर गए। वह बहुत उदास थे। उन्होंने घोड़े को पेड़ से बाँध दिया और खुद जीन के ऊपर डालनेवाला कपड़ा बिछाकर लेट रहे। उन्हें अचलगढ़ से निकले आज तीसरा दिन है मगर चिन्ताओं ने पलक नहीं झपकने दी। रानी भानकुंवर उसके दिल से एक पल के लिए भी दूर न होती थी। इस वक्त ठण्डी हवा लगी तो नींद आ गई। सपने में देखने लगा कि जैसे रानी आई हैं और उसे गले लगाकर रो रही हैं। चौंककर आँखें खोलीं तो रानी सचमुच सामने खड़ी उसकी तरफ आँसू भरी आँखों से ताक रही थीं। वह उठ बैठा और माँ के पैरों को चूमा। मगर रानी ने ममता से उठाकर गले लगा लेने के बजाय अपने पाँव हटा लिए और मुंह से कुछ न बोली।
इन्दरमल ने कहा- माँ जी, आप मुझसे नाराज हैं?
रानी ने रुखाई से जवाब दिया- मैं तुम्हारी कौन होती हूँ!
कुंवर- आपको यकीन आए न आए, मैं जब से अचलगढ़ से चला हूँ एक पल के लिए भी आपका ख्याल दिल से दूर नहीं हुआ। अभी आप ही को सपने में देख रहा था।
इन शब्दों ने रानी का गुस्सा ठंडा किया। कुँवर की ओर से निश्चित होकर अब वह राजा का ध्यान कर रही थी। उसने कुंवर से पूछा- तुम तीन दिन कहाँ रहे?
कुंवर ने जवाब दिया- क्या बताऊँ, कहाँ रहा। इन्दौर चला गया था वहाँ पोलिटिकल एजेण्ट से सारी कथा कह सुनाई।
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