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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


वह इसी चिन्ता में डूबा हुआ उठा और घर पर आकर सोचने लगा, यह संकट कैसे टाले? अभी साल का आधा भी नहीं गुजरा और आश्रम पर बारह हज़ार का कर्ज हो गया था। साल पूरा-पूरा होते वह बीस हज़ार तक पहुँचेगा। अगर वह लड़कियों की फ़ीस एक-एक रुपया बढ़ा दे, तो पाँच सौ रुपये की आमदनी बढ़ सकती है। होस्टल की फीस दो-दो रुपये बढ़ा दे, तो पाँच सौ रुपये और आ सकते हैं। इस तरह वह आश्रम की आमदनी में बारह हज़ार सालाना की बढ़ती कर सकता है; लेकिन फिर उसका वह आदर्श कहाँ रहेगा कि गरीबों की लड़कियों को नाममात्र फीस लेकर ऊँची शिक्षा दी जाए! काश, उसे ऐसी अध्यापिकाओं की काफ़ी तादाद मिल जाती जो केवल गुजारे पर काम करतीं। क्या इतने बड़े देश में ऐसी दस-बीस पढ़ी-लिखी देवियाँ भी नहीं हैं? उसने कई बार अखबारों में यह जरूरत छपवाई थी, मगर आज तक किसी ने जवाब न दिया। अब फ़ीस बढ़ाने के सिवा उसके लिए कौन-सा रास्ता है?

इसी वक्त उसके द्वार के सामने एक ताँगा आकर रुका और एक महिला उतरकर बरामदे में आयी। विमल ने कमरे से बाहर निकलकर उनका स्वागत किया और उन्हें अन्दर ले जाकर एक कुरसी पर बैठा दिया। देवीजी रूपवती तो न थीं, पर उनके मुख पर शिष्टता और कुलीनता की आभा जरूर थी। औसत कद, कोमल गात, चम्पई रंग, प्रसन्न मुख, खूब बनी-सँवरी हुई; मगर उस बनाव-सँवार में ही जैसे अभाव की झलक थी। विमल के लिए यह कोई नई बात न थी। जब से उसने सेवाश्रम खोला था, भले घरों की देवियाँ अकसर उससे मिलने आती रहती थीं।

देवीजी ने कुरसी पर बैठते हुए कहा- पहले अपना नाम बता दूँ। मुझे मंजुला कहते हैं। मैंने कुछ दिन हुए, ‘लीडर’ में आपकी नोटिस देखी थी और उसी प्रयोजन से आपकी सेवा में आयी हूँ। यों तो आपसे मिलने का शौक बहुत दिनों से था; पर कोई अवसर न निकाल पाती थी, और बरबस आकर आपका कीमती समय नष्ट न करना चाहती थी। आपने जिस त्याग और तन्मयता से नारियों की सेवा की है, उसने आपके प्रति मेरे मन में इतनी श्रद्धा पैदा कर दी है कि मैं उसे प्रकट करूँ तो शायद आप खुशामद समझें। मेरे मन में भी इसी तरह की सेवा की इच्छा बहुत दिनों से है; पर जितना सोचती हूँ; उतना कर नहीं सकती। आपके प्रोत्साहन से सम्भव है; मैं भी कुछ कर सकूँ!

विमल मौन सेवकों में था। अपनी प्रशंसा उसके लिए सबसे कठिन परीक्षा थी। उसकी ठीक वही दशा हो जाती थी, जैसे कोई पानी में डुबकियाँ खा रहा हो। वह खुद किसी के मुँह पर उसकी तारीफ़ न करता था, इसलिए तारीफ़ के भूखे उसे तंगदिल समझते थे। वह पीठ के पीछे तारीफ़ करता था। हाँ, बुराइयाँ वह मुँह पर करता था और दूसरों से भी यही आशा रखता था।

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