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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


थोड़े दिनों के बाद वहाँ से तबादला हो गया और रसिकलालजी की कोई खबर नहीं मिली। कोई साल-भर के बाद एक दिन गुलाबी लिफ़ाफ़े पर सुनहरे अक्षरों में छपा हुआ एक निमंत्रण-पत्र मिला। रसिकलाल के बड़े लड़के का विवाह हो रहा था। नवेद के नीचे क़लम से आग्रह किया गया था कि अवश्य आइए, वरना मुझे आपसे बड़ी शिकायत रहेगी। आधा मज़ा जाता रहेगा। एक उर्दू का शेर भी था-

इस शौके फ़िरावाँ की या रब
आखिर कोई हद भी है कि नहीं
इंकार करे वह या वादा
हम रास्ता देखते रहते हैं।


एक सप्ताह का समय था। मैंने नई रेशमी अचकन बनवाई, नए जूते खरीदे और खूब बन-ठनकर चला। वधू के लिए एक अच्छी-सी काश्मीरी साड़ी ले ली। महीनों एक जगह रहते-रहते और एक ही काम करते-करते मन कुछ कुंठित-सा हो गया था। तीन-चार दिन खूब जलसे रहेंगे, गाने सुनूँगा, दावतें उड़ाऊँगा। मन बहाल हो जाएगा। रेलगाड़ी से उतरकर वेटिंग रूम में गया और अपना नया सूट पहना। बहुत दिनों वाद नया सूट पहनने की नौबत आई थी, पर आज भी मुझे नया सूट पहनकर वही खुशी हुई जो लड़कपन में होती थी। मन कितना ही उदास हो, नया सूट पहनकर हरा हो जाता है। मैं तो कहता हूँ बीमारी में बहुत-सी दवाएँ न खाकर हम नया सूट बनवा लिया करें तो कम-से-कम उतना फ़ायदा तो ज़रूर ही होगा, जितना दवा खाने से होता है। क्या यह कोई बात ही नहीं कि जरा देर के लिए आप अपनी ही आँखों में कुछ ऊँचे हो जाएँ? मेरा अनुभव तो यह कहता है कि नया सूट हमारे अंदर एक नया जीवन डाल देता है, जैसे साँप केंचुल बदले या वसंत में वृक्षों में नई कोंपलें निकल आए।

स्टेशन से निकलकर मैंने ताँगा लिया और रसिकलाल के द्वार पर पहुँचा। तीन बजे होंगे। लू चल रही थी। मुँह झुलसा जाता था। द्वार पर शहनाइयाँ बज रही थीं। बंदनवारें बँधी हुई थीं। ताँगे से उतरकर अंदर के सहन में पहुँचा। बहुत से आदमी आँगन के सहन के बीच में घेरा बाँधे खड़े थे। मैंने समझा कि शायद जोड़े-गहने की नुमाइश हो रही होगी। भीड़ चीरकर घुसा - बस कुछ न पूछो, क्या देखा जो ईश्वर सातवें बैरी को भी न दिखाए। अर्थी थी, पक्के काम के दोशाले से ढकी हुई, जिस पर फूल बिखरे हुए थे। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि गिर पडूँगा।

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