कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
सेठानी ने कहा, 'लड़की बड़ी घमंडिन है। आँख का पानी मर गया है।'
झाबरमल- 'बीस रुपये खराब हो गये। ऐसा फाड़ा है कि जुड़ भी नहीं सकते।'
कुबेरदास- 'तुम घबड़ाओ नहीं; मैं इसे अदालत से ठीक करूँगा। जाती कहाँ है।'
झाबरमल- 'अब तो आपका ही भरोसा है।'
बिरादरी के बड़े पंच की बात कहीं मिथ्या हो सकती है? रेवती नाबालिग थी। माता-पिता नहीं थे। ऐसी दशा में पंचों का उस पर पूरा अधिकार था। वह बिरादरी के दबाव में नहीं रहना चाहती है, न चाहे। कानून बिरादरी के अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकता। सन्तलाल ने यह माजरा सुना; तो दाँत पीसकर बोले न जाने इस बिरादरी का भगवान् कब अंत करेंगे।
रेवती- 'क्या बिरादरी मुझे जबरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती है?'
सन्तलाल- 'हाँ बेटी, धनिकों के हाथ में तो कानून भी है।'
रेवती- 'मैं कह दूँगी कि मैं उनके पास नहीं रहना चाहती।'
सन्तलाल- 'तेरे कहने से क्या होगा। तेरे भाग्य में यही लिखा था, तो किसका बस है। मैं जाता हूँ बड़े पंच के पास।'
रेवती- 'नहीं मामाजी, तुम कहीं न जाव। जब भाग्य ही का भरोसा है; तो जो कुछ भाग्य में लिखा होगा वह होगा।'
रात तो रेवती ने घर में काटी। बार-बार निद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। यह अनाथ अकेला कैसे रहेगा, यह सोचकर उसका मन कातर हो जाता; पर झाबरमल की सूरत याद करके उसका संकल्प दृढ़ हो जाता। प्रात:काल रेवती गंगा-स्नान करने गयी। यह इधर कई महीनों से उसका नित्य का नियम था। आज जरा अँधेरा था; पर यह कोई सन्देह की बात न थी। सन्देह तब हुआ, जब आठ बज गये और वह लौटकर न आयी।
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