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प्रेमचन्द की कहानियाँ 32

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9793
आईएसबीएन :9781613015308

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग


सन्तलाल ने ओंठ चबाकर कहा, 'मैं कहता हूँ, आप लोग क्या इतने निर्दयी हैं ! आप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया नहीं आती ! क्या उन्हें रास्ते का भिखारी बनाकर छोड़ेंगे?'

लेकिन सन्तलाल की फरियाद पर किसी ने ध्यान न दिया। मकान की बातचीत अब नहीं टाली जा सकती थी। बाजार मंदा है। 30 हजार से बेसी नहीं मिल सकते, 15 हजार तो कुबेरदास के हैं। पाँच हजार बचेंगे। चार हजार गहनों से आ जायँगे। इस तरह 9 हजार में बड़ी किफायत से ब्रह्मभोज और बिरादरी-भोज दोनों निपटा दिये जायँगे। सुशीला ने दोनों बालकों को सामने करके करबद्ध होकर कहा, 'पंचो, मेरे बच्चों का मुँह देखिए। मेरे घर में जो कुछ है; वह आप सब ले लीजिए; लेकिन मकान छोड़ दीजिए मुझे कहीं ठिकाना न मिलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती हूँ मकान इस समय न बेचें।'

इस मूर्खता का क्या जवाब दिया जाय। पंच लोग तो खुद चाहते थे कि मकान न बेचना पड़े। उन्हें अनाथों से कोई दुश्मनी नहीं थी; किन्तु बिरादरी का भोज और किस तरह किया जाय। अगर विधवा कम-से-कम पाँच हजार रु. का जोगाड़ और कर दे, तो मकान बच सकता है, पर वह ऐसा नहीं कर सकती, तो मकान बेचने के सिवा और कोई उपाय नहीं।

कुबेर ने अन्त में कहा, 'देख बाई, बाजार की दशा इस समय खराब है। रुपये किसी से उधार नहीं मिल सकते। बाल-बच्चों के भाग में लिखा होगा, तो भगवान् और किसी हीले से देगा। हीले रोजी, बहाने मौत। बाल-बच्चों की चिंता मत कर। भगवान् जिसको जन्म देते हैं, उसकी जीविका की जुगत पहले ही से कर देते हैं। हम तुझे समझाकर हार गये। अगर तू अब भी अपना हठ न छोड़ेगी, तो हम बात भी न पूछेंगे। फिर यहाँ तेरा रहना मुश्किल हो जायगा। शहरवाले तेरे पीछे पड़ जायँगे।'

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