लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

224 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मैंने लज्जित होकर कहा- ''जी नहीं, इस ख्याल से नहीं खड़ा हूँ। साहब ने इतने दिनों तक परवरिश की, वह क्या थोड़ा है। मगर कम-से-कम इतना तो बता दीजिए कि किस मद से वह रुपया दिया जाता था?''

बड़े बाबू- 'पूछकर क्या करोगे?''

''कुछ नहीं, यों ही। जानने को जी चाहता है।''

''जाकर दानू बाबू से पूछो।''

''दफ्तर का हाल दानू बाबू क्या जान सकते हैं।''

''नहीं, यह हाल वही जानते हैं।''

मैंने बाहर आकर एक ताँगा लिया और दानू के पास पहुँचा। आज पूरे दस महीने के बाद मैंने ताँगा किराए पर किया था। इस रहस्य को जानने के लिए मेरा दम घुट रहा था। दिल में तय कर लिया था कि अगर बच्चा ने यह षड्यंत्र रचा होगा, तो बुरी तरह खबर लूँगा। आप बग़ीचे में टहल रहे थे। मुझे देखा तो घबराकर बोले- ''कुशल तो है, कहाँ से भागे आते हो?''

मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाकर कहा- ''मेरे यहाँ तो कुशल है, लेकिन तुम्हारी कुशल नहीं।''  

''क्यों भई, क्या अपराध हुआ है?''

''आप बतलाइए कि पाँच महीने तक मुझे जो 15 रुपए वेतन के ऊपर मिलते थे, यह कहां से आते थे?''

''तुमने वड़े बाबू से नहीं पूछा? तुम्हारे दफ्तर का हाल मैं क्या जानूँ।''

मैं आजकल दानू से बेतकल्लुफ़ हो गया था। बोला-

''देखो दानू मुझसे उड़ोगे, तो अच्छा न होगा। क्यों नाहक़ मेरे हाथों पिटोगे।''  

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book