कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
राजकुमार एक पग और बढ़ा और दुष्ट भाव से बोला- ''प्रभा, यहीं आकर तुम त्रिया-चरित्र में निपुण हो गई। तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की आड़ ले रही हो। तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना ढूँढ रही हो। मैं इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौंदर्य-पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता। मेरी कामनाएँ मिट्टी में मिलती हैं तो तुम्हें लेकर जाएँगी। मेरा जीवन नष्ट होता है तो उसके पहले तुम्हारे जीवन का भी अंत होगा। तुम्हारी बेवफाई का यही दंड है। बोलो क्या निश्चय करती हो? इस समय मेरे साथ चलती हो या नहीं? क़िले के बाहर मेरे आदमी खड़े हैं।''
प्रभा ने निर्भयता से कहा- ''नहीं।''
राजकुमार- ''सोच लो, नहीं तो पछताओगी।''
प्रभा- ''खूब सोच लिया है।''
राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ़ लपका। प्रभा भय से आखें बंद किए एक क़दम पीछे हट गई। मालूम होता था, उसे मूर्छा आ जाएगी। अकस्मात् राणा तलवार लिए वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए। राजकुमार सँभलकर खड़ा हो गया।
राणा ने सिंह के समान गरज कर कहा- ''दूर हट। क्षत्रिय स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते।''
राजकुमार ने तनकर उत्तर दिया- ''लज्जाहीन स्त्रियों की यही सजा है।''
राणा ने कहा- ''तुम्हारा वैरी तो मैं था। मेरे सामने आते क्यों लजाते थे! जरा मैं भी तुम्हारी तलवार की काट देखता।''
राजकुमार ने ऐंठकर राणा पर तलवार चलाई। शस्त्रविद्या में राणा अतिकुशल थे। वार खाली देकर राजकुमार पर झपटे। इतने में प्रभा जो मूर्छित अवस्था में दीवार से चिपटी खड़ी थी, बिजली की तरह कौंधकर राजकुमार के सामने खड़ी हो गई। राणा वार कर चुके थे। तलवार का का पूरा हाथ उसके कंधे पर पड़ा। रक्त की फुहार छूटने लगी। राणा ने एक ठंडी साँस ली और उन्होंने तलवार हाथ से फेंककर गिरती हुई प्रभा को सँभाल लिया।
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