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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


प्रभा को चित्तौड़ में रहते दो महीने गुजर चुके हैं। राणा उसके पास फिर न आए। इस बीच में राणा के विचारों में बहुत कुछ अंतर हो गया है। झालावार पर आक्रमण होने के पहले मीराबाई को इसकी बिलकुल खबर न थी। राणा ने इस प्रस्ताव को गुप्त करके रक्खा था, किंतु अब मीराबाई प्राय: उन्हें इस दुराग्रह पर लज्जित किया करती हैं। और धीरे-धीरे राणा को भी विश्वास होने लगा है कि प्रभा इस तरह क़ाबू में नहीं आ सकती। उन्होंने उसके सुखविलास की सामग्री एकत्रित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन प्रभा उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखती। राणा प्रभा की लौडियों से नित्य का समाचार पूछा करते हैं और उन्हें रोज वही निराशापूर्ण वृत्तांत सुनाई देता है। मुरझाई हुई कली किसी भाँति नहीं खिलती। अतएव राणा को कभी-कभी अपने इस दुस्साहस पर पश्चाताप होता है। वे पछताते हैं कि मैंने व्यर्थ यह अन्याय किया, लेकिन फिर प्रभा का अनुपम सौंदर्य नेत्रों के सामने आ जाता है और वह अपने मन को इस विचार से समझा लेते हैं कि एक सगर्वा सुंदरी का प्रेम इतनी जल्दी परिवर्तित नहीं हो सकता। निस्संदेह मेरा मृदु व्यवहार कभी-न-कभी अपना प्रभाव दिखलाएगा।

प्रभा सारे दिन अकेली बैठी-बैठी उकताती और झुँझलाती है। उसके विनोद के निमित्त कई गानेवाली स्त्रियाँ नियुक्त थीं, किंतु रागरंग से उसे अरुचि हो गई थी। वह प्रतिक्षण चिंताओं में डूबी रहती थी।

राणा के नम्र भाषण का प्रभाव अब मिट चुका था और उनकी अमानुषिक वृत्ति अब फिर अपने यथार्थ रूप में दिखाई देने लगी थी। वाक्य-चतुरता शांतिकारक नहीं होती। वह केवल निरुत्तर कर देती है। प्रभा को अब अपने अवाक्य हो जाने पर आश्चर्य होता है। उसे राणा की बातों के उत्तर भी सूझने लगे हैं। वह कभी-कभी उनसे लड़कर अपनी क़िस्मत का फ़ैसला करने के लिए विकल हो जाती है।

मगर अब यह वाद-विवाद किस काम का? वह सोचती है कि मैं रावसाहब की कन्या हूँ पर संसार की दृष्टि में राणा की रानी हो चुकी। अब यदि मैं इस क़ैद से छूट भी जाऊँ तो मेरे लिए कहाँ ठिकाना है। मैं किसे मुँह दिखाऊँगी। इससे केवल मेरे वंश का ही नहीं, वरन् समस्त राजपूत जाति का नाम डूब जाएगा। मंदारकुमार मेरे सच्चे प्रेमी हैं, मगर क्या वे मुझे अंगीकार करेंगे? और यदि वे निंदा की परवाह न करके मुझे ग्रहण भी कर लें तो उनका मस्तक सदा के लिए नीचा हो जाएगा और कभी-न-कभी उनका मन मेरी तरफ़ से फिर जाएगा। वे मुझे अपने कुल का कलंक समझने लगेंगे। या यहाँ से किसी तरह भाग जाऊँ, लेकिन भागकर जाऊँ कहाँ? बाप के घर? वहाँ अब मेरी पैठ नहीं। मंदारकुमार के पास? इसमें उनका अपमान है और मेरा भी। तो क्या भिखारिणी बन जाऊँ? इसमें भी जग-हँसाई होगी और न जाने प्रबल भावी किस मार्ग पर ले जाए। एक अबला स्त्री के लिए सुंदरता प्राणघातक यंत्र से कम नहीं। ईश्वर, वह दिन न आए कि मैं क्षत्रिय जाति का कलंक बनूँ। क्षत्रिय जाति ने मर्यादा के लिए पानी की तरह रक्त बहाया है। उनकी हज़ारों देवियाँ पर-पुरुष के मुँह देखने के भय से सूखी लकड़ी के समान जल मरी हैं। ईश्वर, वह घड़ी न आए कि मेरे कारण किसी राजपूत का सिर लज्जा से नीचा हो। नहीं, मैं इसी कैद में मर जाऊँगी। राणा के अन्याय सहूँगी, जलूँगी, मरूँगी, पर इसी घर में। विवाह जिससे होना था, हो चुका। हृदय में उसी की उपासना करूँगी, पर कंठ के बाहर उसका नाम न निकालूँगी।

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