कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
रावसाहब को कई आदमियों ने पकड़ लिया था। वे तड़पकर बोले- ''प्रभा, तू राजपूत की कन्या है?''
प्रभा की आँखें सजल हो गई। बोली- ''राणा भी तो राजपूतों के कुल-तिलक हैं।''
रावसाहब ने तैश में आकर कहा- ''निर्लज्जा!''
कटार के नीचे पड़ा हुआ बलिदान का पशु जैसी दीन-दृष्टि से देखता है, उसी भाँति प्रभा ने रायसाहब की ओर देखकर कहा- ''जिस झालावार की गोद में पाली गई हूँ क्या उसे रक्त से रँगवा दूँ?''
रावसाहब ने क्रोध से काँपकर कहा- ''क्षत्रियों को रक्त इतना प्यारा नहीं है। मर्यादा पर प्राण देना उनका धर्ण है।''
तब प्रभा की आँखें लाल हो गई। चेहरा तमतमाने लगा। बोली- ''राजपूत कन्या अपने सतीत्व की रक्षा आप कर सकती है। इसके लिए रुधिर प्रवाह की आवश्यकता नहीं।''
पल-भर में राणा ने प्रभा को गोद में उठा लिया। वे बिजली की भाँति कौंधकर बाहर निकले। उन्होंने उसे घोड़े पर बिठाया, आप सवार हो गए और घोड़े को उड़ा दिया। अन्य चित्तौडियों ने भी घोड़े की बाग मोड़ दी। उनके दो सौ जवान भूमि पर पड़े तड़प रहे थे, पर किसी ने तलवार न चलाई थी।
रात को दस बजे मंदारवाले भी पहुँचे। मगर यह शोक-समाचार पाते ही लौट गए। मंदार-कुमार निराशा से अचेत हो गया। जैसे रात को नदी का किनारा सुनसान हो जाता है, उसी तरह सारी रात झालावार में सन्नाटा छाया रहा।
चित्तौड़ के रंगमहल में प्रभा उदास बैठी सामने के सुंदर पौधों की पत्तियाँ गिन रही थी। संध्या का समय था। रंगबिरंगे पक्षी वृक्षों पर बैठे कलरव कर रहे थे। इतने में राणा ने कमरे में प्रवेश किया, प्रभा उठकर खड़ी हो गई।
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