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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


दयाशंकर- हाँ, बल्कि देर हो रही है।

गिरिजा- मंगल की शाम को गाड़ी से आओगे न?

दयाशंकर- जरूर, किसी तरह नहीं रुक सकता। तुम सिर्फ उसी दिन मेरा इंतजार करना।

गिरिजा- ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है।

दयाशंकर-(हँसकर) वह स्वर्ग ही क्यों न हो, मंगल को यहाँ जरूर आ जाऊँगा। दिल बराबर यहीं रहेगा। तुम जरा भी न घबराना। यह कहकर गिरिजा को गले लगा लिया और मुस्कराते हुए बाहर निकल आए। इक्का रवाना हो गया। गिरिजा पलंग पर बैठ गई और खूब रोयी। मगर इस वियोग के दुख, आँसुओं की बाढ़, अकेलेपन के दर्द और तरह-तरह के भावों की भीड़ के साथ एक और ख्याल दिल में बैठा हुआ था जिसे वह बार-बार हटाने की कोशिश करती थी- क्या इनके पहलू में दिल नहीं है! या है तो उस पर उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है? वह मुस्कराहट जो विदा होते वक्त दयाशंकर के चेहरे पर लग रही थी, गिरिजा की समझ में नहीं आती थी।

सतारा में बड़ी धूमधाम थी। दयाशंकर गाड़ी से उतरे तो वर्दीपोश वालंटियरों ने उनका स्वागत किया। एक फिटन उनके लिए तैयार खड़ी थी। उस पर बैठकर वह कांफ्रेंस पंड़ाल की तरफ चले। दोनों तरफ झंडियाँ लहरा रही थीं। दरवाजे पर बन्दनवारें लटक रही थीं। औरतें अपने झरोखों से और मर्द बरामदों में खड़े हो-होकर खुशी से तालियाँ बजाते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंड़ाल में पहुँचे और एक खूबसूरत खेमे में उतरे। यहाँ सब तरह की सुविधाएँ एकत्र थीं।

दस बजे कांफ्रेंस शुरू हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जलवे दिखाने लगे। किसी के हँसी-दिल्लगी से भरे हुए चुटकुलों पर वाह-वाह की धूम मच गई, किसी की आग बरसानेवाले तकरीर ने दिलों में जोश की एक लहर-सी पैदा कर दी। विद्वत्तापूर्ण भाषणों के मुकाबले में हँसी-दिल्लगी और बात कहने की खूबी को लोगों ने ज्यादा पसन्द किया। श्रोताओं को उन भाषणों में थियेटर के गीतों का-सा आनन्द आता था। कई दिन तक यही हालत रही और भाषणों की दृष्टि से कांफ्रेंस को शानदार कामयाबी हासिल हुई। आखिरकार मंगल का दिन आया। बाबू साहब वापसी की तैयारियाँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि आज उन्हें मजबूरन ठहरना पड़ा। बम्बई और यू.पी. के ड़ेलीगेटों में एक हाकी मैच ठहर गई। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। वह भी टीम में दाखिल कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि अपना गला छुड़ा लूँ मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बिलकुल ध्यान न दिया। साहब, जो ज्यादा बेतकल्लुफ थे, बोले- आखिर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? तुम्हारा दफ्तर अभी हफ्ता भर बंद है। बीवी साहबा की नाराजगी के सिवा मुझे इस जल्दबाजी का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता।

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