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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791
आईएसबीएन :9781613015285

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


'आप इस युवती से मेरी बात पक्की करा दें। मैं तैयार हूँ।'

'हाँ, यह मेरा जिम्मा, मगर हमारा भाई हिस्सा भी रहेगा।'

'अर्थात्?'

'अर्थात्, यह कि कभी-कभी मैं भी आपके घर आकर अपनी आँखें ठंड़ी कर लिया करुँगा।'

'अगर आप इस इरादे से आये, तो मैं आपका दुश्मन हो जाऊँगा।'

'ओ हो, आप तो मंकी ग्लैंड का नाम सुनते ही जवान हो गये।'

'मैं तो समझता हूँ, यह भी डॉक्टरों ने लूटने का एक लटका निकाला है। सच।'

'अरे साहब, इस रमणी के स्पर्श में जवानी है, आप हैं किस फेर में। उसके एक-एक अंग में, एक-एक मुस्कान में, एक-एक विलास में जवानी भरी हुई। न सौ मंकी ग्लैंड़, न एक रमणी का बाहुपाश।'

'अच्छा कदम बढाइए, मुवक्किल आकर बैठे होंगे।'

'यह सूरत याद रहेगी।'

'फिर आपने याद दिला दी।'

'वह इस तरह सोयी है, इसलिए कि लोग उसके रूप को, उसके अंग-विन्यास को, उसके बिखरे हुए केशों को, उसकी खुली हुई गर्दन को देखें और अपनी छाती पीटें। इस तरह चले जाना, उसके साथ अन्याय है। वह बुला रही है और आप भागे जा रहे हैं।'

'हम जिस तरह दिल से प्रेम कर सकते है, जवान कभी कर सकता है?'

'बिल्कुल ठीक। मुझे तो ऐसी औरतों से साबिका पड़ चुका हैं, जो रसिक बूढों को खोजा करती हैं। जवान तो छिछोरे, उच्छृंखल, अस्थिर और गर्वीले होते हैं। वे प्रेम के बदले कुछ चाहते हैं। यहाँ निःस्वार्थ भाव से आत्म-समर्पण करते हैं।'

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