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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


मैंने सरल भाव से कहा इससे महिलाओं का तो क्या अपमान हुआ ! आत्मा तो सबकी एक ही है। आभूषणों से आत्मा तो ऊँची नहीं हो जाती !

पति महाशय ने होंठ चबा कर कहा- चुप भी रहो, बेसुरा राग अलाप रही हो। बस वही मुर्गी की एक टाँग। आत्मा एक है, परमात्मा एक है? न कुछ जानो न बूझो, सारे शहर में नक्कू बना दिया, उस पर और बोलने को मरती हो। उन महिलाओं की आत्मा को कितना दुःख हुआ, कुछ इस पर भी ध्यान दिया?

मैं विस्मित हो कर उनका मुँह ताकने लगी।

आज प्रातःकाल उठी तो मैंने एक विचित्र दृश्य देखा। रात को मेहमानों की जूठी पत्तल, सकोरे, दोने आदि बाहर मैदान में फेंक दिये गये थे। पचासों मनुष्य उन पत्तलों पर गिरे हुए उन्हें चाट रहे थे ! हाँ, मनुष्य थे, वही मनुष्य जो परमात्मा के निज स्वरूप हैं। कितने ही कुत्ते भी उन पत्तलों पर झपट रहे थे, पर वे कंगले कुत्तों को मार-मार कर भगा देते थे। उनकी दशा कुत्तों से भी गयी-बीती थी। यह कौतुक देख कर मुझे रोमांच होने लगा, मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। भगवान् ! ये भी हमारे भाई-बहन हैं, हमारी आत्माएँ हैं। उनकी ऐसी शोचनीय, दीन दशा ! मैंने तत्क्षण महरी को भेज कर उन मनुष्यों को बुलाया और जितनी पूरी-मिठाइयाँ मेहमानों के लिए रखी हुई थीं, सब पत्तलों में रखकर उन्हें दे दीं। महरी थर-थर काँप रही थी, सरकार सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल भी न छोड़ेंगे। लेकिन मैंने उसे ढाढ़स दिया, तब उसकी जान में जान आयी।

अभी ये बेचारे कंगले मिठाइयाँ खा ही रहे थे कि पति महाशय मुँह लाल किये हुए आये और अत्यंत कठोर स्वर में बोले तुमने भंग तो नहीं खा ली? जब देखो, एक न एक उपद्रव खड़ा कर देती हो। मेरी तो समझ में नहीं आता कि तुम्हें क्या हो गया है। ये मिठाइयाँ डोमड़ों के लिए नहीं बनायी गयी थीं। इनमें घी, शक्कर, मैदा लगा था, जो आजकल मोतियों के मोल बिक रहा है। हलवाइयों को दूध के धोये रुपये मजदूरी के दिये गये थे। तुमने उठा कर सब डोमड़ों को खिला दीं। अब मेहमानों को क्या खिलाया जायगा? तुमने मेरी इज्जत बिगाड़ने का प्रण कर लिया है क्या?

मैंने गम्भीर भाव से कहा आप व्यर्थ इतने क्रुद्ध होते हैं। आपकी जितनी मिठाइयाँ खिला दी हैं, वह मैं मँगवा दूँगी। मुझसे यह नहीं देखा जाता कि कोई आदमी तो मिठाइयाँ खाय और कोई पत्तलें चाटें। डोमड़े भी तो मनुष्य ही हैं। उनके जीव में भी तो उसी ...

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