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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


बात पूरी न होने पायी थी कि न-जाने कहाँ से ज़ैसे आकाशवाणी हो आवाज आई 'बिन्नी तुम्हारी पुत्री है।'

चौबेजी ने दोनों कान बंद कर लिये। भय से थर-थर काँपते हुए बोले, 'बिन्नी, यहाँ से चलो। न जाने कहाँ से आवाजें आ रही हैं।'

'बिन्नी तुम्हारी पुत्री है !' यह ध्वनि सहस्त्र कानों से पंडितजी को सुनाई पड़ने लगी, मानो इस कमरे की एक-एक वस्तु से यही सदा आ रही है। बिन्नी ने रोकर पूछा, 'क़ैसी आवाज थी? '

पंडित- 'क्या बताऊँ, कहते लज्जा आती है।'

बिन्नी- 'ज़रूर बहनजी की आत्मा है। बहन, मुझ पर दया करो, मैं सर्वथा निर्दोष हूँ।'

पंडित- 'फ़िर वही आवाज आ रही है। हाय ईश्वर ! कहाँ जाऊँ? मेरे तो रोम-रोम में वे ही शब्द गूँज रहे हैं। बिन्नी, बुरा किया। मंगला सती थी, उसके आदेश की उपेक्षा करके मैंने अपने हक में जहर बोया। कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? '

यह कहकर पंडितजी ने कमरे के किवाड़ खोल दिये और बेतहाशा भागे। अपने मरदाने कमरे में पहुँचकर वह गिर पड़े। मूर्छा आ गयी। विंध्येश्वरी भी दौड़ी, पर चौखट से बाहर निकलते ही गिर पड़ी !

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4. मंत्र-1

पंडित लीलाधर चौबे की जबान में जादू था। जिस वक्त वह मंच पर खड़े होकर अपनी वाणी की सुधावृष्टि करने लगते थे, श्रोताओं की आत्माएँ तृप्त हो जाती थीं, लोगों पर अनुराग का नशा छा जाता था। चौबे जी के व्याख्यानों में तत्त्व तो बहुत कम होता था, शब्दयोजना भी बहुत सुन्दर न होती थी; लेकिन उनकी शैली इतनी आकर्षक, रंजक और मर्मस्पर्शी थी कि एक ही व्याख्यान को बार-बार दुहराने पर भी उसका असर कम न होता, बल्कि घन की चोटों की भाँति और भी प्रभावोत्पादक होता जाता था। विश्वास तो नहीं आता किन्तु सुनने वाले कहते हैं, उन्होंने केवल एक व्याख्यान रट रखा है, और उसी को वह शब्दशः प्रत्येक सभा में एक नए अंदाज से दुहराया करते हैं। जातीय गौरव-गान उनके व्याख्यानों का प्रधान गुण था; मंच पर आते ही भारत के प्राचीन गौरव और पूर्वजों की  अमर-कीर्ति का राग छोड़कर सभा को मुग्ध कर देते थे। यथा–

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