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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


मैंने रोषपूर्ण शब्द में कहा- चुप बेवकूफ कहीं की, तू मर गयी होगी। मेरी स्त्री पश्तो नहीं जानती थी, वह तन्मय होकर मूँगे देख रही थी।  

किन्तु मेरी बात सुनकर न मालूम क्यों काबुली औरत की आँखें चमकने लगीं। उसने बड़े तीव्र स्वर में कहा- हाँ, बेवकूफ न होती तो तुम्हें छोड़ कैसे देती। दोजखी पिल्ले, मुझसे झूठ बोला था! ले अगर तेरी स्त्री तब न मरी थी, अब मर गयी!

कहते-कहते शेरनी की तरह लपक कर उसने एक तेज छूरा मेरी स्त्री की छाती में घुसेड़ दिया। मैं उसे रोकने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन वह कूदकर आँगन में चली गई और बोली- अब पहचान ले, मैं तूरया हूँ। मैं आज तेरे घर में रहने के लिए आई थी। मैं तुमसे विवाह करती और तेरी होकर रहती। तेरे लिए मैं अपना बाप, घर सब कुछ छोड़ दिया था, लेकिन तू झूठा है, मक्कार है। तू अपनी बीबी के नाम से रो, मैं आज से तेरे नाम को रोऊँगी।

यह कह कर वह तेजी से नीचे चली गयी।

अब मैं अपनी स्त्री के पास पहुँचा। छूरा ठीक हृदय में लगा था। एक ही वार ने उसका काम तमाम कर दिया था। डाक्टर बुलवाया, लेकिन वह मर चुकी थी।

कहते-कहते सरदार साहब की आँखों में आँसू भर आये। उन्होंने अपनी भीगी हुई आँखों को पोंछ कर कहा- असदखाँ, मुझे स्वप्न में भी अनुमान न था कि तूरया इतनी पिशाच हृदया हो सकेगी। अगर मैं पहले से उसे पहचान लेता तो यह आफत न आने पाती, लेकिन कमरे में अन्धकार था, और इसके अतिरिक्त मैं उसकी ओर से निराश हो चुका था।

तब से फिर कभी तूरया नहीं आयी। अब जब कभी मुझको देखती है तो मेरी ओर देखकर नागिन की भाँति फुफकारती हुई चली जाती है। उसे देखकर मेरा हृदय काँपने लगता है और मैं अवश हो जाता हूँ। कई बार कोशिश भी कि इसे पकड़वा दूँ, लेकिन उसे देखकर मैं बिल्कुल निकम्मा हो जाता हूँ। हाथ पैर बेकाबू हो जाते हैं, मेरी सारी वीरता हवा हो जाती है।

यही नहीं, तूरया का मोह अब भी मेरे ऊपर है। मेरे बच्चों को हमेशा वह कोई न कोई बहुमूल्य चीज दे जाती है। जिस दिन बच्चे उसे नहीं मिलते, दरवाजे के भीतर फेंक जाती है। उसमें एक कागज का टुकड़ा बँधा होता है, जिसमें लिखा रहता है- सरदार साहब के बच्चों के लिए।

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