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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


सरदार साहब ने एक गहरी ठंडी साँस लेकर कहा- हाँ, बखूबी। एक समय था, जब यह मुझ पर जान देती थी और वास्तव में अपनी जान पर खेलकर मेरी रक्षा भी की थी; लेकिन अब मेरी सूरत से नफरत है। इसी ने मेरी स्त्री की हत्या की है। इसे जब कभी देखता हूँ, मेरे होश-हवास काफूर हो जाते हैं और वही भयानक दृश्य मेरी आँखों के सामने नाचने लगता है।

मैंने भय–विह्वल स्वर में पूछा- सरदार साहब, उसने मेरी ओर भी तो बड़ी भयानक दृष्टि से देखा था। न-मालूम क्यों मेरे भी रोयें खड़े हो गये थे।

सरदार साहब ने सिर हिलाते हुए बड़ी गम्भीरता से कहा- असदखाँ, तुम भी होशियार रहो। शायद इस बूढ़े अफ्रीदी से इसका भी कोई सम्पर्क है। मुमकिन हो, यह उसका भाई या बाप हो। तुम्हारी ओर उसका देखना कोई मानी रखता है। बड़ी भयानक स्त्री है।

सरदार साहब की बात सुनकर मेरी नस-नस काँप उठी। मैंने बातों का सिलसिला दूसरी ओर फेरते हुए कहा- सरदार साहब, आप इसको पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देते। इसको फाँसी हो जायगी।

सरदार साहब ने कहा- भाई असदखाँ, इसने मेरे प्राण बचाये थे और शायद अब भी मुझे चाहती है। इसकी कथा बहुत लम्बी है। कभी अवकाश मिला, तो कहूँगा।

सरदार की बातों से मुझे भी कुतूहल हो रहा था। मैंने उनसे यह वृत्तान्त सुनाने के लिए आग्रह करना शुरू किया। पहले तो उन्होंने टालना चाहा, पर जब मैंने बहुत जोर दिया तो विवश होकर बोले- असद, मैं तुम्हें अपना भाई समझता हूँ, इसलिए तुमसे कोई परदा न  रक्खूँगा। लो, सुनो—

असदखाँ, पाँच साल पहले मैं इतना वृद्ध न था, जैसा कि अब दिखाई पड़ता हूँ। इस समय मेरी आयु चालीस वर्ष से अधिक नहीं है। एक भी बाल सफेद न हुआ था और उस समय मुझमें इतना बल था कि दो जवानों को मैं लड़ा देता। जर्मनों से मैंने मुठभेड़ की है और न मालूम कितनों को यमलोक का रास्ता बता दिया। जर्मन-युद्व के बाद मुझे यहाँ सीमा प्रान्त पर काली पलटन का मेजर बनाकर भेजा गया। जब पहले-पहल मैं यहाँ आया तो यहाँ पर कठिनाइयाँ सामने आई; लेकिन मैंने उनकी जरा भी परवाह न की और धीरे-धीरे उन सब पर विजय पाई। सबसे पहले यहाँ आकर मैंने पश्तो सीखना शुरू किया। पश्तो के बाद और भी जबानें सीखीं, यहाँ तक कि मैं उनको बड़ी आसानी और मुहाविरों के साथ बोलने लगा, फिर इसके बाद कई आदमियों की टोलियाँ बनाकर देश का अन्तर्भाग भी छान डाला। इस पड़ताल में कई बार मैं मरते-मरते बचा, किन्तु सब कठिनाइयाँ झेलते हुए मैं यहाँ पर सकुशल रहने लगा। उस जमाने में मेरे हाथ से ऐसे-ऐसे काम हो गये, जिनसे सरकार में मेरी बड़ी नामवरी और प्रतिष्ठा भी हो गयी। एक बार कर्नल हेमिलटन की मेम साहब को मैं अकेले छुड़ा लाया था, और कितने ही देशी आदमियों और औरतों के प्राण मैंने बचाये हैं। यहाँ पर आने के तीन साल बाद से मेरी कहानी आरम्भ होती है।

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