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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


मैंने उसी विनोद के भाव से कहा- तुम जैसे लड़के को भूलना असम्भव है।

सूर्यप्रकाश ने विनीत स्वर में कहा- उन्हीं अपराधों को क्षमा कराने के लिए सेवा में आया हूँ। मैं सदैव आपकी खबर लेता रहता था। जब आप इँगलैंड गये तो मैंने आपके लिए बधाई का पत्र लिखा; पर उसे भेज न सका। जब आप प्रिंसिपल हुए, मैं इंगलैंड जाने को तैयार था। वहाँ मैं पत्रिकाओं में आपके लेख पढ़ता रहता था। जब आप लौटे तो मालूम हुआ कि आपने इस्तीफा दे दिया कहीं देहात में चले गये हैं। इस जिले में आये हुए मुझे एक वर्ष से अधिक हुआ पर इसका जरा भी अनुमान न था आप यहाँ एकांतसेवन कर रहे हैं। ऊजाड़ गाँव में आपका जी कैसे लगता है? इतनी ही अवस्था में आपने वानप्रस्थ ले लिया?

 मैं नहीं कह सकता कि सूर्यप्रकाश की उन्नति देखकर मुझे कितना आश्चर्यमय आनन्द हुआ। अगर मेरा पुत्र होता, तो भी इससे अधिक आनंद न होता मैं उसे अपने झोपड़े में लाया और अपनी रामकहानी कह सुनाई।

सूर्यप्रकाश ने कहा- तो यह कहिए कि आप अपने ही एक भाई के विश्वासघात का शिकार हुए। मेरा अनुभव तो अभी बहुत कम है; मगर इतने में ही मुझे मालूम हो गया कि हम लोग अभी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना नहीं जानते। मिनिस्टर साहब से भेंट हुई, तो पूछूँगा कि यही आपका धर्म था?

मैंने जवाब दिया- भाई, उनका कोई दोष नहीं। सम्भव है, इस दशा  में मैं भी वही करता जो उन्होंने किया। मुझे अपनी स्वार्थ-लिप्सा की सजा मिल गई और उसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ। बनावट नहीं, सत्य कहता हूँ कि यहाँ जो शांति है, वह और कहीं न थी। इस एकांत जीवन में मुझे जीवन के तत्वों का वह ज्ञान हुआ, जो सम्पत्ति और अधिकार की दौड़ में किसी तरह सम्भव न था।  इतिहास और भूगोल के पोथे चाट कर और यूरोप के विद्यालयों की शरण जा कर भी  मैं अपनी ममता को न मिटा सका; बल्कि यह रोग दिन-दिन और भी असाध्य होता जाता था। आप सीढ़ियों पर पाँव रखे बगैर छत की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकते। सम्पत्ति की अट्टालिका तक पहुँचने में दूसरों की जिंदगी ही जीनों का काम देती है। आप उन्हें कुचलकर ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। सौजन्य और सहानुभूति का स्थान ही नहीं। मुझे ऐसा मालूम होता है कि  उस वक्त मैं हिंस्र जंतुओं से घिरा था और मेरी सारी शक्तियाँ अपनी आत्मरक्षा में लगी रहती थीं। यहाँ मैं अपने चारों ओर संतोष और सरलता से देखता हूँ। पास जो लोग आते हैं, कोई स्वार्थ लेकर नहीं आते हैं, और न मेरी सेवाओं में प्रशंसा या गौरव की लालसा है।

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