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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785
आईएसबीएन :9781613015223

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


राजा- ''सच?''

प्रजागण- ''धर्मावतार, बिलकुल सच है।''

राजा- ''मैंने तो उनके अलौकिक चमत्कारों की बड़ी-बड़ी कथाएँ सुनी हैं।''

प्रजागण- ''दीनबंधु, उन्हीं ने तो यही कहा है कि तुम लोग अपने स्वामी की शरण जाओ। वे ही तुम्हारा उपकार कर सकते हैं।''

राजा ने हँसकर कहा- ''जब ऐसे सिद्धगण कुछ नहीं कर सके, तो मैं किस गिनती में हूँ।''

प्रजागण- ''धर्मावतार, आप इस देश के पति हैं। आप में ईश्वर का वास है। आप यदि हमारी प्रार्थना को ईश्वर तक पहुँचा दें, तो हमें विश्वास है कि हमारा संताप दूर हो जावेगा।''

राजा ने अनुकंपित होकर कहा- ''सज्जनो, मुझे ऐसी आशा नहीं है। आपके ऊपर विपत्ति पड़ी हुई है इसका मुझे अत्यंत दुःख है, परंतु जो राजा अपने भोग-विलास में इतना लिप्त हो कि उसे अपनी प्रजा की दशा का तनिक भी ज्ञान न हो, जो सदैव मद्य से चूर पड़ा रहता हो, जो नित्य काम-लिप्सा में मग्न रहता हो, उसके द्वारा तुम्हारा क्या उपकार हो सकता है? किंतु मैं तुम लोगों को निराश नहीं करना चाहता। तुम्हारी विपत्ति को अपनी कठोरहृदयता से बढ़ाना नहीं चाहता। मैं ईश्वर से कुछ विनय करने के लिए सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझे उनसे कुछ प्रार्थना करते हुए लज्जा आती है। पर मैं तुम लोगों के कल्याणार्थ निर्लज्ज बनकर उनके सम्मुख जाऊँगा। धीरज रखो।''

मध्याह्न-काल था। सूर्य की प्रखर किरणें अग्नि के शरों के समान पृथ्वी पर गिर रही थीं और पृथ्वी पीड़ा तथा भय से काँप रही थी। झुलसती हुई रेती से भाप निकलती रही थी, मानो यह अनाथ पृथ्वी की आह का धुआँ था। ऐसे समय में राजा पृथ्वीपतिसिंह राजभवन से बाहर निकले। उनके शरीर पर एक पतली लँगोटी के सिवा और कोई वस्त्र या आभूषण न था। सुंदर केश मुड़े हुए थे और मुख पर कालिमा पुती हुई थी। उस कालिमा में उनके रक्तवर्ण नेत्र इस प्रकार चमक रहे थे, मानो काली बनात पर लाल रेशम के फूल बने हों। उनका चेहरा उदास और मलिन था और आँखों से आँसू बह रहे थे। इस भाँति नंगे सिर, नंगे पैर, ग्लानि, नैराश्य तथा लज्जा की मूर्ति बने हुए, वे आकर राजभवन के सामने, जलती हुई भूमि पर खड़े हो गए। मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों ने राजा को रोकने की बहुत चेष्टा की, पर उन्होंने कुछ दृढ़ प्रतिज्ञा की थी। वे उससे विचलित न हुए।

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