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प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779
आईएसबीएन :9781613015162

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


रामेन्द्र का विरोध सजीव हो उठा। बोले- 'मैंने तो नहीं लौटाया, सुलोचना ने लौटाया। पर मेरे ख्याल में अच्छा किया।'

कुँवर- 'तो यह कहो तुम्हारा इशारा था। तुमने इन पतितों को अपनी ओर खींचने का कितना अच्छा अवसर हाथ से खो दिया है! सुलोचना को देखकर जो कुछ असर पड़ा, वह तुमने मिटा दिया। बहुत संभव था कि एक प्रतिष्ठित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का आरम्भ करता, मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न दिया।'

रामेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। कुँवर साहब जरा उत्तेजित होकर बोले, 'आप लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हरेक बुराई मजबूरी से होती है। चोर इसलिए चोरी नहीं करता कि चोरी में उसे विशेष आनन्द आता है; बल्कि केवल इसलिए कि जरूरत उसे मजबूर कर देती है। हाँ, वह जरूरत वास्तविक है या काल्पनिक इसमें मतभेद हो सकता है। स्त्री के मैके जाते समय कोई गहना बनवाना एक आदमी के लिए जरूरी हो सकता है। दूसरे के लिए बिलकुल गैर जरूरी। क्षुधा से व्यथित होकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता है, दूसरा मर जायगा पर किसी के सामने हाथ न फैलायेगा, पर प्रकृति का यह नियम आप जैसे विद्वानों को न भूलना चाहिए कि जीवन-लालसा प्राणिमात्र में व्यापक है। जिंदा रहने के लिए आदमी सबकुछ कर सकता है। जिंदा रहना जितना ही कठिन होगा, बुराइयाँ भी उसी मात्रा में बढ़ेंगी, जितना ही आसान होगा उतनी ही बुराइयाँ कम होंगी। हमारा यह पहला सिद्धान्त होना चाहिए कि जिंदा रहना हरेक के लिए सुलभ हो। रामेन्द्र बाबू, आपने इस वक्त इन लोगों के साथ वही व्यवहार किया जो दूसरे आपके साथ कर रहे हैं और जिससे आप बहुत दु:खी हैं।'

रामेन्द्र ने इस लंबे व्याख्यान को इस तरह सुना, जैसे कोई पागल बक रहा हो। इस तरह की दलीलों का वह खुद कितनी ही बार समर्थन कर चुके थे; पर दलीलों से व्यथित अंग की पीड़ा नहीं शांत होती। पतित स्त्रियों का नातेदार की हैसियत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कि रामेन्द्र किसी दलील से पराभूत होकर उसे भूल न सकते थे।

बोले- 'मैं ऐसे प्राणियों से कोई संबंध नहीं रखता। यह विष अपने घर में नहीं फैलाना चाहता!'

सहसा सुलोचना भी कमरे में आ गई। प्रसवकाल का असर अभी बाकी था; पर उत्तेजना ने चेहरे को आरक्त कर रखा था। रामेन्द्र सुलोचना को देखकर तेज हो गये। वह उसे जता देना चाहते थे कि इस विषय में मैं एक रेखा तक जा सकता हूँ, उसके आगे किसी तरह नहीं जा सकता।

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