लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779
आईएसबीएन :9781613015162

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

247 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


ठाकुर प्रसन्न होकर बोला- तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह। मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।

तुलिया आंखें मटकाकर बोली- आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न रहने पाऊं, क्यों?

‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो तेरा गुलाम हूं।’

‘बचन देते हो?’

‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार बार।’

‘फिर तो न जाओगे?’

‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’

‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख दो।’

ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसकी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।

उसने माथे पर बल लाकर कहा- मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदाद से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!

तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया- तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book