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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


लालवा का यह अन्तिम प्रश्न पूरा भी न हुआ था कि तेजबा को साथ लिए हुए महाराज महासिंह आ पहुंचे। लालवा को प्यार से छाती लगाकर कारागार के बीते दुखों को भूल गये। महासिंह, गंभीरसिंह के साथ वीर दुर्गादास से मिलने चले; और मानसिंह तेजबा और लालवा को लेकर राज-भवन चला गया।

मानसिंह और गंभीरसिंह को किले पर भेजने के पश्चात, वीर दुर्गादास ने चारों मुगल सरदारों को केसरीसिंह के साथ किया और राजमहल के पास वाले कारागार में कैद कर दिया। जोधपुर की रक्षा के लिए भी उचित प्रबन्ध किया। चारों तरफ विश्वासी रक्षकों तथा गुप्तचरों को नियुक्त किया। सब जरूरी कामों से निपटने के बाद एक छोटी-सी सभा की। राजपूत सरदारों की अनुमति पाकर आस-पास के गांवों में रहने वाले मुगलों को युद्धनीति के अनुसार पकड़कर कैद कर लिया; पर उनके साथ शत्रु का-सा नहीं, मित्र का-सा व्यवहार किया जाता था।! वीर दुर्गादास की मन्शा मुगलों को कष्ट पहुंचाने की न थी। केवल शत्रुओं पर राजपूत कैदियों को छोड़ देने के लिए दबाव डालना था।

दुर्गादास सदैव अपने देश और जाति की भलाई के लिए कमर कसे तैयार ही रहता था। कोई काम कैसा भी कष्ट साधेय क्यों न हो, कभी न हिचकता था। आज उसी साहस और देशभक्ति की बदौलत उसने अमर-कीर्ति प्राप्त की है। मारवाड़ के बच्चे भी वीर दुर्गादास के नाम पर गर्व करते हैं।

जब जोधपुर की जीत का समाचार फैला, तो शत्रु भी मित्र बनकर बधाई देने के लिए इकट्ठा होने लगे और इतनी भीड़ हुई कि जोधपुर में एकत्र जनता समा न सकी; विवश होकर वीर दुर्गादास को जोधपुर के बाहर एक भारी मैदान में सभा करनी पड़ी। पौष की पूर्णिमा के दिन राजप्रसाद से लेकर सभा-मण्डप तक एक तिल रखने की भी जगह न थी। कभी कोई राज-भवन से सभा की ओर जाता था, तो कोई सभा से राज भवन की ओर लौट आता था। उस समय चलती-फिरती जनता का दृश्य बड़ा ही अपूर्व था। मालूम होता था कि समुद्र उमड़ पड़ा है। ऐसा कोई न था जिसको वीर दुर्गादास के दर्शनों की लालसा न हो। स्त्रियां झरोखों से झांक रही थीं। जयध्वनि आकाश में गूंज रही थी और चारों ओर से फूलों की वर्षा हो रही थी।

अच्छा हुआ कि वीर दुर्गादास राज-भवन से पैदल ही चला नहीं तो फूलों से दब जाता और बेचारे दर्शकों की लालसा धूल में मिल जाती; क्योंकि इसमें अधिकांश ऐसे भी थे जो दुर्गादास को पहचानते न थे। वे अपने पास खड़े हुए मनुष्यों से पूछते थे- भाई! इनमें वीर दुर्गादास कौन हैं?

कोई अपने मित्र की उंगली उठाकर बता रहा था कोई एक दूसरे से कह रहा था। भाई, मारवाड़ का विजेता, हमारी बहन-बेटियों की लाज की रक्षा करने वाला वीर दुर्गादास इस प्रकार सबको नमस्कार करता हुआ पैदल ही जा रहा है। धन्य है! देखो! इतना बड़ा काम करने पर भी घमण्ड का नाम नहीं, देवता है। मनुष्य नहीं, देवता है। मनुष्य में यह गुण कहां?

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