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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


देवीजी से बिना बोले न रहा गया, 'आते ही श्री-चरणों पर सिर तो रख दिया, अब और क्या चाहते थे।'

ढपोरसंख अबकी मुसकाये- 'देखो श्यामा, बीच-बीच में टोको मत। अदालत की प्रतिष्ठा यह कहती है कि अभी चुपचाप सुनती जाओ। जब तुम्हारी बारी आये, तो जो चाहे कहना।'

फिर सिलसिला शुरू हुआ- था तो दुबला-पतला मगर बड़ा फुर्तीला, बातचीत में बड़ा चतुर, एक जुमला अँग्रेजी बोलता, एक जुमला हिन्दी, और हिन्दी-अँग्रेजी की खिचड़ी, जैसे आप जैसे सभ्य लोग बोलते हैं।

बातचीत शुरू हुई- 'आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। मैंने जैसा अनुमान किया था, वैसा ही आपको देखा। बस, अब मालूम हो रहा है, कि मैं भी आदमी हूँ। इतने दिनों तक कैदी था।'

मैंने कहा, 'तो क्या इस्तीफा दे दिया?

'नहीं, अभी तो छुट्टी लेकर आया हूँ। अभी इस महीने का वेतन भी नहीं मिला। मैंने लिख दिया है, यहाँ के पते से भेज दें। नौकरी तो अच्छी है; मगर काम बहुत करना पड़ता है और मुझे कुछ लिखने का अवसर नहीं मिलता।'

खैर, रात को मैंने इसी कमरे में उन्हें सुलाया। दूसरे दिन यहाँ के एक होटल में प्रबन्ध कर दिया। होटलवाले पेशगी रुपये ले लेते हैं। जोशी के पास रुपये न थे। मुझे तीस रुपये देने पड़े। मैंने समझा, इसका वेतन तो आता ही होगा, ले लूँगा। यहाँ मेरे एक माथुर मित्र हैं। उनसे भी मैंने जोशी का जिक्र किया था। उसके आने की खबर पाते ही होटल दौड़े। दोनों में दोस्ती हो गई। जोशी दो-तीन बार दिन में, एक बार रात को जरूर आते और खूब बातें करते। देवीजी उनको हाथों पर लिए रहतीं। कभी उनके लिए पकौड़ियाँ बन रही हैं, कभी हलवा। जोशी हरफनमौला था। गाने में कुशल, हारमोनियम में निपुण, इन्द्रजाल के करतब दिखलाने में कुशल। सालन अच्छा पकाता था। देवीजी को गाना सीखने का शौक पैदा हो गया। उसे म्यूजिक मास्टर बना लिया।

देवीजी लाल मुँह करके बोलीं- 'तो क्या मुफ्त में हलवा, पकौड़ियाँ और पान बना-बनाकर खिलाती थी?'

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