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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


मैंने उदासीन भाव से कहा– मेरी तो जाने की इच्छा नहीं है भाई! सिर में ज़ोर का दर्द है।

‘तब तो जरूर चलो। दर्द भाग न जाय तो कहना।’

‘तुम तो यार बहुत दिक़ करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले; लेकिन तुम सिर पर सवार ही हो गये। कह दिया– मैं न जाऊँगा।

‘और मैंने कह दिया– मैं ज़रूर ले जाऊँगा।’

मुझ पर विजय पाने का मेरे मित्रों को बहुत आसान नुस्ख़ा याद है। यों हाथा-पायी, धींगा-मुश्ती, धौल-धप्पा में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ; लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और परास्त हुआ। फिर मेरी कुछ नहीं चलती। मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ घिघियाने लगता हूँ और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ, जयदेव ने वही नुस्ख़ा आजमाया और उसकी जीत हो गयी। सन्धि की यही शर्त ठहरी कि मैं चुपके से झाँकी देखने चला चलूँ।

सेठ घूरेलाल उन आदमियों में हैं, जिनका प्रातः को नाम ले लो, तो दिनभर भोजन न मिले। उनके मक्खीचूसपने की सैकड़ों ही दन्तकथाएँ नगर में प्रचलित हैं। कहते हैं कि एक बार मारवाड़ का एक भिखारी उनके द्वार पर डट गया कि भिक्षा ले कर ही जाऊँगा। सेठजी भी अड़ गये कि भिक्षा न दूँगा, चाहे कुछ हो। मारवाड़ी उन्हीं के देश का था। कुछ देर तो उनके पूर्वजों का बखान करता रहा, फिर उनकी निन्दा करने लगा, अन्त में द्वार पर लेट रहा। सेठ जी ने रत्ती भर परवाह न की। भिक्षुक भी अपनी धुन का पक्का था। सारा दिन द्वार पर बे-दाना-पानी पड़ा रहा और अन्त में वहीं पर मर गया। तब सेठ जी पसीजे और उसकी क्रिया इतनी धूम-धाम से की कि बहुत कम किसी ने की होगी। एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराया और लाख ही उन्हें दक्षिणा में दिया। भिक्षुक का सत्याग्रह सेठ जी ने के लिए वरदान हो गया। उनके अन्तःकरण में भक्ति का जैसे स्रोत खुल गया। अपनी सारी सम्पत्ति धर्मार्थ अर्पण कर दी।

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