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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774
आईएसबीएन :9781613015117

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


बूटी का यौवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है। उस दिन से रूपा प्राय: दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाए या बेरंगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती-बहू-बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है। रूपा ने एक दिन कहा- तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ! लोगों को इशारा मिल जाए, तो भौंरों की तरह तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगें।

बूटी ने मीठे तिरस्कार से कहा- चल, मैं तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी?

‘अम्माँ तो बूढ़ी हो गई।’

‘तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं?’

‘हाँ ऐसा, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी।’

बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से देखकर पूछा- अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूँ?

रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई। आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा- कुछ रुपये-पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ।

समाप्त

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