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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774
आईएसबीएन :9781613015117

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


राना जंगबहादुर- ''केवल एक शांति-प्रिय सुख स्थान की खोज में, जहाँ उन्हें अपनी दुरवस्था की चिंता से मुक्त होने का अवसर मिले। वह ऐश्वर्थ्यशाली रानी जो रंगमहलों में सुख विलास करती थी-जिसे फूलों की सेज पर भी चैन न मिलता था-आज सैकड़ों कोस से अनेक प्रकार के कष्ट सहन करती, नदी, नाले, पहाड़, जंगल छानती यहाँ केवल एक रक्षित स्थान की खोज में आती है। उमड़ी हुई नदियाँ और उबलते हुए नाले, बरसात के दिन। इन दुःखों को आप लोग जानते हैं और यह सब उसी एक रक्षित स्थान के लिए! उसी एक भूमि के टुकड़े की आशा में! किंतु हम ऐसे स्थानहीन हैं कि उसकी यह अभिलाषा भी पूरी नहीं कर सकते। उचित तो यह था कि उतनी-सी भूमि के बदले हम अपना हृदय फैला देते। सोचिए, कितने अभिमान की बात है कि एक आपदा में फँसी हुई रानी अपने दुःख के दिनों में जिस देश को याद करती है वह यही पवित्र देश है। महारानी चंद्रकुँवरि को हमारे इस अभयप्रद स्थान पर-हमारी शरणागतों की रक्षा पर-पूरा भरोसा था और वही विश्वास उन्हें यहाँ तक लाया है। इसी आशा पर कि पुशपतिनाथ की शरण में मुझको शांति मिलेगी, वह यहाँ तक आई है। आपको अधिकार है चाहे उसकी आशा पूर्ण करें या उसे धूल में मिला दें। चाहे रक्षकता-शरणागतों के साथ सदाचरण - के नियमों को निभाकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम छोड़ जाएँ, या जातीयता तथा सदाचार संबंधी नियमों को मिटाकर स्वयं अपने को पतित समझें। मुझे विश्वास नहीं है कि यहाँ एक मनुष्य भी ऐसा निरभिमान है जो इस अवसर पर शरणागत-पालन धर्म को विस्मृत करके अपना सिर ऊँचा कर सके। अब मैं आपके अंतिम निपटारे की प्रतीक्षा करता हूँ। कहिए, आप अपनी जाति और देश का नाम उज्ज्वल करेंगे या सर्वदा के लिए अपने माथे पर अपयश का टीका लगाएँगे? ''

राजकुमार ने उमंग से कहा- ''हम महारानी के चरणों तले आँखें बिछाएँगे।''

कप्तान विक्रमसिंह बोले- ''हम राजपूत हैं और अपने धर्म का निर्वाह करेंगे।''

जेनरल बनवीरसिंह- ''हम उनको ऐसी धूमधाम से लाएँगे कि संसार चकित हो जाएगा।''

राना जंगबहादुर ने कहा- ''मैं अपने मित्र कड़बड़ खत्री के मुख से उनका फ़ैसला सुनना चाहता हूँ।''

कड़बड़ खत्री एक प्रभावशाली पुरुष थे और मंत्रिमंडल में वे राना जंगबहादुर की विरुद्ध मंडली के प्रधान थे। वह लज्जा भरे शब्दों में बोले- ''यद्यपि मैं महारानी के आगमन को भयरहित नहीं समझता, किंतु इस अवसर पर हमारा धर्म यही है कि हम महारानी जी को आश्रय दें। धर्म से मुँह मोड़ना किसी जाति के लिए मान का कारण नहीं हो सकता।''

कई ध्वनियों ने उमंग भरे शब्दों में इस प्रसंग का समर्थन किया।

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