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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774
आईएसबीएन :9781613015117

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


रानी (आश्चर्य से) - ''शत्रुओं में जाऊँ? नेपाल कब हमारा मित्र रहा है? ''

सिपाही- ''राना जंगबहादुर दृढ़ प्रतिज्ञ राजपूत हैं।''

रानी- ''कितु वही जंगबहादुर तो है जो अभी-अभी हमारे विरुद्ध लार्ड डलहौजी को सहायता देने पर उद्यत था।

सिपाही (कुछ लज्जित-सा होकर)- ''तब आप महारानी चंद्रकुँवरि थीं, आज आप भिखारनी हैं। ऐश्वर्थ्य के द्वेषी और शत्रु चारों ओर होते हैं। लोग जलती हुई आग को पानी से बुझाते हैं, पर राख माथे पर चढ़ाई जाती है। आप जरा भी सोच-विचार न करें। नेपाल में अभी धर्म का लोप नहीं हुआ है। आप भय त्याग करें और चलें। देखिए वह आपको किस भाँति सिर-आखों पर बिठाता है।''

रानी ने रात इसी वृक्ष की छाया में काटी। सिपाही भी वहीं सोया। प्रातःकाल वहीं दो तीव्रगामी घोड़े देख पड़े। एक पर सिपाही सवार था और दूसरे पर एक अत्यंत रूपवान् युवक। यह रानी चद्रकुँवरि थी, जो अपने रक्षा-स्थान की खोज में नेपाल जाती थी। कुछ देर पीछे रानी ने पूछा- ''यह पड़ाव किसका है?''

सिपाही ने कहा- ''राना जंगबहादुर का। वे तीर्थ यात्रा करने आए हैं, किंतु हमसे पहले पहुँच जाएँगे।''

रानी- ''तुमने उनसे मुझे यहीं क्यों न मिला दिया? उनका हार्दिक भाव प्रकट हो जाता।''

सिपाही- ''यहाँ उनसे मिलना असंभव था। आप जासूसों की दृष्टि से बच न सकतीं।''

उस समय में यात्रा करना प्राण को अर्पण कर देना था। दोनों यात्रियों को अनेक वार डाकुओं का सामना करना पड़ा। उस समय रानी की वीरता, उसका युद्ध-कौशल तथा फुर्तीलापन देखकर बूढ़ा सिपाही दाँतों तले उँगली दबाता था। कभी उनकी तलवार काम कर जाती और कभी घोड़ों की तेज चाल। यात्रा बड़ी लंबी थी। जेठ का महीना मार्ग ही में समाप्त हो गया। वर्षा ऋतु आई। आकाश में मेघ-माला छाने लगी। सूखी नदियाँ उतरा चलीं। पहाड़ी नाले गरजने लगे। न नदियों में नाव, न नालों पर घाट, किंतु घोड़े सधे हुए थे। स्वयं पानी में उतर जाते और डूबते-उतराते, सहते भँवर खाते पार जा पहुँचते। एक बार बिच्छू ने कछुए की पीठ पर नदी की यात्रा की थी। यह यात्रा उससे कम भयदायक न थी।

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