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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


घर में कोहराम मचा हुआ था। दोनों महिलाएँ पछाड़ें खा-खा कर गिरती थीं। मुहल्ले की स्त्रियाँ उन्हें समझाती थीं। अन्य मित्रगण आँखों पर रूमाल जमाये हुए थे। जवानी की मौत संसार का सबसे करुण, सबसे अस्वाभाविक और भयंकर दृश्य है। यह वज्रघात है, विधाता की निर्दय लीला है। प्रभुदास का सारा शरीर प्राणहीन हो गया था, पर आँखें जीवित थीं। वे अब भी उसी संदूक की ओर लगी हुई थीं। जीवन ने तृष्णा का रूप धारण कर लिया था। साँस निकलती है, पर आस नहीं निकलती।

इतने में मगनसिंह आ कर खड़ा हो गया। प्रभुदास की निगाह उस पर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानों उनके शरीर में फिर रक्त का संचार हुआ। अंगों में स्फूर्ति के चिह्न दिखायी दिये। इशारे से अपने मुँह के निकट बुलाया, उसके कान में कुछ कहा, एक बार लोहे के सन्दूक की ओर इशारा किया और आँखें उलट गयीं, प्राण निकल गये।

समाप्त

प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन में 46 भागों में सम्मिलित की गईं है। यह इस श्रंखला का दसवाँ भाग है।

अनुक्रम

1. ख़ूने-हुर्मत (प्रतिष्ठा की हत्या)
2. खेल
3. खौफ़े-रुसवाई (बदनामी का डर)
4. ग़मी
5. ग़रीब की हाय
6. गिला
7. गुप्त धन

1. ख़ूने-हुर्मत (प्रतिष्ठा की हत्या)

मैंने अफ़सानों और तारीखों में भाग्य के छल की अजीबो-गरीब दास्तानें देखी हैं। शाह को भिखारी और भिखारी को शाह बनते देखा है। इंसान को हैवान और हैवान को इंसान बनते देखा है। तकदीर एक गुप्त राज है। गलियों में टुकड़े चुनती हुई जड़ाऊ सिंहासन पर विराजमान हो गई हैं। वे सत्ता के मद के मतवाले, जिनके इशारे पर तक़दीर भी सर झुकाती थी, एक क्षण मात्र में में कौआ व चील का शिकार बन गए हैं। फिर मेरे सर पर जो कुछ बीती उसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता।

आह! उन वाक्यात को आज याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हैरत होती है कि अब तक मैं क्यों और क्योंकर जिंदा हूँ। हुस्न तमन्नाओं का उद्गम स्थान है। मेरे दिल में क्या-क्या तमन्नाएँ न थीं, पर आह! वे अन्यायी के हाथों मर मिटीं। मैं क्या जानती थी कि वही शख्स, जो मेरी एक-एक अदा पर कुर्बान होता था, एक दिन मुझे यूँ जलील व ख्वार करेगा।

आज तीन साल हुए जब मैंने इस घर में क़दम रखा। उस वक्त यह एक खिला हुआ चमन था। मैं इस चमन की बुलबुल थी, हवा में उड़ती थी, डालियों पर चहकती थी, फूलों पर सोती थी। सईद मेरा था, मैं सईद की थी। इस हौज़े-बिलारी के किनारे हम मुहब्बत के पीसे खेलते थे। इन्हीं पगडंडियों में मुहब्बत के तराने गाए थे। इसी चमन में हमारी प्रेम की बातें होती थीं। मस्तियों के दौर चलते थे।

वह मुझसे कहते थे- ''तुम मेरी जान हो।''

मैं उनसे कहती थी- ''तुम मेरे दिलदार हो।''

हमारी जायदाद बड़ी थी। ज़माने की कोई फ़िक्र, ज़िंदगी का कोई गम न था। हमारे लिए ज़िंदगी एक आनंद की बहार थी, जिसमें मुरादें खिलती थीं और खुशियाँ हँसती थीं। जमाना हमारा शुभचिंतक था। आसमान हमारा घनिष्ठ दोस्त और बख्त हमारा मित्र।

एक दिन सईद ने आकर कहा- ''जानेमन, मैं तुमसे एक इल्तज़ा करने आया हूँ। देखना, इन मुस्कराते हुए लबों पर हर्फ़े-इंकार न आए। मैं चाहता हूँ कि अपनी सारी मिलक़ियत, सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर दूँ। मेरे लिए तुम्हारी मुहब्बत काफ़ी है। यही मेरे लिए दुर्लभ पदार्थ है। मैं अपनी हक़ीक़त को मिटा देना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि तुम्हारे दरवाजे का फक़ीर बन के रहूँ। तुम मेरी नूरजहाँ बन आओ, मैं तुम्हारा सलीम बनूँगा और तुम्हारे के प्यालों पर उम्र बसर कर दूँगा।''

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