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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


अगर्चे मिलक्रियत पर मेरा नाम था, पर यह महज धोखा था। सईद का पूर्ण अधिकार था। नौकर भी उसी को अपना आक़ा समझते थे और अक्सर मेरे साथ गुस्ताखी से पेश आते। मैं ईश्वर का भरोसा करके ज़िंदगी के दिन काट रही थी। जब दिल में तमन्नाएँ न रहीं, तो पीड़ा क्यों होती?

सावन का महीना था। काली घटा छाई हुई थी और रिमझिम बूँदें पड़ रही थीं। बाग़ीचे पर अँधकार और कालिमायुक्त दरख्तों पर जुगनुओं की चमक ऐसी मालूम होती थी, गोया उनके मुँह से अग्नियुक्त निःश्वास निकल रही हैं। मैं देर तक यह तमाशा-ए-हसरत देखती रही। कीड़े एक साथ चमकते थे और एक साथ बंद हो जाते थे, गोया रोशनी की बाड़े छू रही हैं। मुझे भी झूला झूलने और गाने का शौक हुआ। मौसमी हाल निराशाजनक दिलों पर भी अपना जादू कर जाती है। बागीचे में एक गोल बँगला था। मैं उसमें आई और बरामदे की एक कड़ी में झूला डलवाकर झूलने लगी। मुझे आज मालूम हुआ कि हसरत में भी आत्मिक वियोग है, जिससे बामुराद दिल अपरिचित होते हैं। मैं शौक से एक मलार गाने लगी। सावन विरह और गम का महीना है। गीत में एक परित्यक्त हृदय की दास्ताँ ऐसे दर्दनाक-लफ्जों में बयान की गई थी कि बेअन्द्रियार आँखों से आँसू टपकने लगे थे। इतने में बाहर से एक लालटेन की रोशनी नज़र आई। सईद का मुलाजिम पिछले दरवाजे से दाखिल हुआ। उसके पीछे वही हसीना और सईद चले आ रहे थे। हसीना ने मेरे पास आकर कहा- ''आज यहाँ आनंद की सभा होगी और शराब के दौर चलेंगे।'' मैंने घृणापूर्वक कहा- ''मुबारक हो।''

हसीना- ''बारहमासे और मलार की तानें उड़ेगी। साजिंदे आ रहे हैं।''

मैं- ''शौक से।''

हसीना- ''तुम्हारा सीना चाक हो जाएगा।''

सईद ने मुझसे कहा- ''जुबेदा, तुम अपने कमरे में चली जाओ। यह इस वक्त आपे में नहीं है।''

हसीना ने फिर मेरी तरफ़ लाल-लाल आँखें निकालकर कहा- ''मैं तुम्हें अपने पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझती।''

मुझमें सहनशक्ति न रही। अकड़कर बोली- ''और मैं तुझे क्या समझती हूँ एक कुतिया दूसरों की उगली हुई हड्डियाँ चिचोरती फिरती है।''

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