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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769
आईएसबीएन :9781613015063

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


पद्मा देवी ने कहा- ''महाशय 'क' काम तो बड़े उत्साह से करते हैं, लेकिन अगर हिसाब देखा जाए, तो उनके जिम्मे एक हजार से कम न निकलेगा।''

उर्मिला बोली- ''खैर 'क' को तो क्षमा किया जा सकता है। उसके बाल-बच्चे हैं, आखिर उनका पालन-पोपण कैसे करे। जव वह चौबीसों घंटे सेवा-कार्य ही में लगा रहता है, तो उसे कुछ-न-कुछ तो मिलना ही चाहिए। उस योग्यता का आदमी 500 रुपए वेतन पर भी न मिलता। अगर इस साल-भर में उसने एक हजार खर्च कर डाला तो बहुत नहीं है। महाशय 'ख' तो विलकुल निहंग हैं। ''जोरू न जीता अल्लाह मियाँ से नाता'', पर उनके जिम्मे भी एक हजार से कम न होंगे। किसी को क्या अधिकार है कि वह ग़रीबों का धन मोटर की सवारी और यार-दोस्तों की दावत में उड़ा दे?''

श्यामा देवी उद्दंड होकर वोली- ''महाशय 'ग' को इसका जवाब देना पड़ेगा, भाई साहब। यों बचकर नहीं निकल सकते। हम लोग भिक्षा माँग-माँग कर पैसे लाते हैं, इसीलिए कि यार-दोस्तों की दावतें हों, शराबें उड़ाई जाएँ और मुजरे देखे जाएँ? रोज सिनेमा की सैर होती है। गरीबों का धन यों उड़ाने के लिए नहीं है। यहाँ पाई-पाई का लेखा समझाना पड़ेगा। मैं भरी सभा में रगेदूँगी। उन्हें जहाँ पाँच सौ वेतन मिलता हो, वहाँ चले जाएँ। राष्ट्र के सेवक बहुतेरे निकल आवेंगे।''

मैं भी एक बार इसी संस्था का मंत्री रह चुका हूँ। मुझे गर्व है कि मेरे ऊपर कभी किसी ने इस तरह का आक्षेप नहीं किया, पर न-जाने क्यों लोग मेरे मंत्रीत्व से संतुष्ट नहीं थे। लोगों का ख्याल था कि मैं बहुत कम समय देता हूँ और मेरे समय में संस्था ने कोई गौरव बढ़ानेवाला कार्य नहीं किया। इसलिए मैंने रूठकर इस्तीफ़ा दे दिया था। मैं उसी पद से बेलौस रहकर भी निकाला गया। महाशय 'ग' हज़ारों हड़प करके भी उसी पद पर जमे हुए हैं। क्या यह मेरे उनसे कुनह रखने की काफ़ी वजह न थी? मैं चतुर खिलाड़ी की भाँति खुद तो कुछ न करना चाहता था, किंतु पर्दे की आड़ से रस्सी खींचता रहता था।

मैंने रद्दा जमाया- ''देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं। महाशय 'ग' से ज्यादा दिलेर और.. ''

उर्मिला ने मेरी बात काटकर कहा- ''मैं ऐसे आदमी को दिलेर नहीं कहती, जो छिपकर जनता के रुपए से शराब पिए। जिन शराब की दुकानों पर हम धरना देने जाते थे, उन्हीं दुकानों से उनके लिए शराब आती थी। इससे बढ़कर बेहयाई और क्या हो सकती है? मैं तो ऐसे आदमी को देश-द्रोही कहती हूँ।''

मैंने रस्सी और खींची- ''लेकिन यह तो तुम भी मानती हो कि महाशय 'ग' केवल अपने प्रभाव से हज़ारों रुपए चंदा वसूल कर लाते हैं। विलायती कपड़े को रोकने का उन्हें जितना श्रेय दिया जाए, थोड़ा है।''

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