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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769
आईएसबीएन :9781613015063

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


गोरा यह घटना सुनकर काँप उठी। उसे इस नौजवान की बेगुनाही का यक़ीन न आया- ''जरूर यह क़ातिल है। और मैं इस सुनसान जगह में इसके सामने खड़ी हूँ। यह मुझे भी मार डाले और यहाँ की सारी चीज़ें उठा ले जाए तो क्या करूँगी? फ़रियाद भी तो नहीं कर सकती। यहाँ कौन बैठा हुआ है? दादा न मालूम कब तक आएँगे। या ईश्वर, तू मेरी मदद कर।'' इस तरह दिल में सोचकर उसने नौजवान से कहा- ''मैं तुम्हें खाने को दे दूँ तो तुम भाग जाओगे न? अगर जल्द न भागोगे तो मेरे बाप आकर तुम्हें पकड़ लेंगे।''

नौजवान ने जवाब दिया- ''क्या तुम्हारे बाप जल्द आ जाएँगे?''

गोरा- ''हाँ, वह आते ही होंगे। तुम खाना खा लो और फ़ौरन भाग जाओ।'' यह कहकर उसने थोड़ा-सा दूध और चंद रोटियाँ थाली में रखकर उसे दे दीं। नौजवान खाने पर ऐसा टूटा, गोया कभी दाने की सूरत न देखी थी। जब तक वह खाता रहा, गोरा सोटा मजबूती से पकड़े हुए उसकी तरफ़ गौर से देखती रही। उसका दिल धड़क रहा था और कान शिवराम के क़दमों की आहट सुनने के लिए बेक़रार हो रहे थे। जब नौजवान खा चुका तो गोरा ने देखा कि वह इधर-उधर शरारत-भरी निगाहों से ताक रहा है, गोया किसी लाठी की तलाश में है। गोरा ने डाँटकर कहा- ''अब तुम यहाँ से चले जाओ।''

नौजवान- ''जाने-मन! मैं घुड़कियाँ सुनने का आदी नहीं हूँ। तुम्हारे हाथ में सोटा देखकर मैं जरा भी नहीं डरता। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हारे हाथ से वह हथियार छीन लूँ। मगर तुमने मेरे साथ नेकी की है, इसलिए मैं तुम्हें ज्यादा तकलीफ़ नहीं दूँगा। तुम चलकर मुझे रास्ता बता दो।''

गोरा का खून सर्द हो गया। नौजवान ने जो कुछ कहा, वह बिलकुल सही था। बोली- ''यहाँ से कहाँ जाओगे? कहीं रास्ता नहीं है।''

नौजवान- ''नदी के किनारे कोई नाव नहीं है?''

गोरा- ''मेरे बाप की नाव है। मगर तुम उसे ले जाओगे तो वापस कौन लाएगा?''

नौजवान- ''उससे मुझे कुछ सरोकार नहीं है। बस, तुम मुझे उस नाव तक पहुँचा दो।''

गोरा के लिए बचाव की कोई सूरत न थी। वह सोटा लिए हुए नदी के किनारे चली। नौजवान पीछे-पीछे उसके साथ चला। किनारे पर पहुँचकर यकायक वो सख्त लहजे में बोला- ''अपने कपड़े उतारकर मुझे दे दो। जनाना लिबास में मुझे कोई न पहचान सकेगा। क्यों, क्या सोचती हो? यह मेरी शराफ़त है कि जिस चीज़ को बजोर ले सकता हूँ उसके लिए तुमसे फ़कीरों की तरह सवाल करता हूँ। क्या एक इंसान की जान बचाने के लिए तुम इतनी-सी तकलीफ़ भी बरदाश्त नहीं करोगी?''

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