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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769
आईएसबीएन :9781613015063

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


चन्द्रकुँवरि- इतना ही अन्तर क्यों हैं? पृथ्वी आकाश से मिलाती हो? यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे कछवाहों वंश में हूँ, कुछ खबर है?

रुक्मिणी- हाँ, जानती हूँ और नहीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पति) किसी पासी से बढकर मल्ल-युद्व करेंगें? यह सिर्फ टेढ़ी पाग रखना जानते हैं? मैं जानती हूं कि कोई छोटा-सा पासी भी उन्हें काँख-तले दबा लेगा।

विरजन- अच्छा अब इस विवाद को जाने तो। तुम दोनों जब आती हो, लडती हो आती हो।

सेवती- पिता और पुत्र का कैसा संयोग हुआ है? ऐसा मालुम होता हैं कि मुंशी शालिग्राम ने प्रतापचन्द्र ही के लिए संन्यास लिया था। यह सब उन्हीं की शिक्षा का फल है।

रक्मिणी- हां और क्या? मुन्शी शालिग्राम तो अब स्वामी ब्रह्मानन्द कहलाते हैं। प्रताप को देखकर पहचान गये होंगे।

सेवती- आनन्द से फूले न समाये होंगे।

रुक्मिणी- यह भी ईश्वर की प्रेरणा थी, नहीं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर क्या करने जाते?

सेवती- ईश्वर की इच्छा के बिना कोई बात होती है?

विरजन- तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ही गयी। ऋषीकेश में पहले लालाजी ही से प्रतापचन्द्र की भेंट हुई थी। प्रताप उनके साथ साल-भर तक रहे। तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चले।

रुक्मिणी- हां, प्राणनाथ के लेख में तो यह वृतान्त था। बालाजी तो यही कहते हैं कि मुंशी संजीवनलाल से मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न होता तो मैं भी मांगने-खानेवाले साधुओं में ही होता।

चन्द्रकुंवरि- इतनी आत्मोन्नति के लिए विधाता ने पहले ही से सब सामान कर दिये थे।

सेवती- तभी इतनी-सी अवस्था में भारत के सूर्य बने हुए हैं। अभी पचीसवें वर्ष में होगें?

विरजन- नहीं, तीसवां वर्ष है। मुझसे साल भर के जेठे हैं।

रुक्मिणी- मैंने तो उन्हें जब देखा, उदास ही देखा।

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