नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
‘दूँगा, जनेऊ की कसम खा कर कहता हूँ !’
‘न दो तो मेरी बात जाए।’
‘कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँ। क्या लिखा-पढ़ी कर दूँ?’
‘अच्छा, तो माँगती हूँ। मुझे अपने साथ होली खेलने दो।’
पंडित जी का रंग उड़ गया। आँखें फाड़ कर बोले- होली खेलने दूँ? मैं तो होली खेलता नहीं। कभी नहीं खेला। होली खेलना होता, तो घर में छिप कर क्यों बैठता।
‘और के साथ मत खेलो; लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा।’
‘यह मेरे नियम के विरुद्ध है। जिस चीज को अपने घर में उचित समझूँ उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझूँ, सोचो।
‘ चम्पा ने सिर नीचा करके कहा- घर में ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं पाप भी है। पंडित जी झेंपते हुए बोले - अच्छा भाई, तुम जीती, मैं हारा। अब मैं तुम से यही दान माँगता हूँ...
‘पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान माँगना’, यह कहते हुए चम्पा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडित जी को सिर से पाँव तक नहला दिया।
जब तक वह उठ कर भागें उसने मुट्ठी भर गुलाल ले कर सारे मुँह में पोत दिया। पंडित जी रोनी सूरत बना कर बोले- अभी और कसर बाकी हो, तो वह भी पूरी कर लो। मैं जानता था कि तुम मेरी आस्तीन का साँप बनोगी। अब और कुछ रंग बाकी नहीं रहा? चम्पा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रंग झलक रहा था।
पछता कर बोली- क्या तुम सचमुच बुरा मान गये हो? मैं तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो।
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