लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> उर्वशी

उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

205 पाठक हैं

राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


मुक्ति खोजते हो? पर,यह तो कहो कि किस बंधन से?
ये प्रसून, यह पवन बन्ध है? या मैं बाँध रही हूँ?
अच्छा, खुल जाओ प्रसून से, पवन और मुझसे भी;
अब बोलो, मन पर जो बाकी कोई बन्ध नहीं है?
बन्ध, नियम, संयम, निग्रह, शास्त्रों की आज्ञाओं का?
मोह मात्र ही नहीं सभी ऐसे विचार बन्धन हैं,
जो सिखलाते हैं मनुष्य को, प्रकृति और परमेश्वर
दो हैं; जो भी प्रकृत हुआ, वह हुआ दूर ईश्वर से;
ईश्वर का जो हुआ, उसे फिर प्रकृति नहीं पायेगी।
प्रकृति नहीं माया, माया है नाम भ्रमित उस धी का,
बीचोबीच सर्प-सी जिसकी जिह्वा फटी हुई है;
एक जीभ से जो कहती कुछ सुख अर्जित करने को,
और दूसरी से बाकी का वर्णन सिखलाती है।

मन की कृति यह द्वैत, प्रकृति में, सचमुच द्वैत नहीं है।
जब तक प्रकृति विभक्त पड़ी है श्वेत-श्याम खन्डों में
विश्व तभी तक माया का मिथ्या प्रवाह लगता है,
किंतु, शुभाशुभ भावों से मन के तटस्थ होते ही,
न तो दीखता भेद, न कोई शंका ही रहती है।
राग-विराग दुष्ट दोनों, दोनों निसर्ग-द्रोही हैं।
एक चेतना को अजुष्ट संकोचन सिखलाता है;
और दूसरा प्रिय, अभीष्ट सुख की अभिप्रेत दिशा में
कहता है बल-सहित भावना को प्रसरित होने को।
दोनों विषम शांति-समता के दोनों ही बाधक हैं;
दोनों से निश्चिंत चेतना को अभंग बहने दो।
करने दो सब कृत्य उसे निर्लिप्त सभी से होकर,
लोभ, भीति, संघर्ष और यम, नियम, संयमों से भी।

हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय,
विधि-निषेध-मय संघर्षों, यत्नों से साध्य नहीं है।
आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं,
डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से,
या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है,
जैसे किरण अदृश्य लोक की, भेद अगम सत्ता का।

यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का,
जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है,
जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से,
बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,
संघर्षों में निरत, विरत, पर, उनके परिणामों से;
सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है;
हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा,
कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मों का।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai