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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


पुरुरवा
रुको समय-सरिते! पल! अनुपल! काल-शकल! घटिकाओं!
इस प्रकार, आतुर उड़ान भर कहाँ तुम्हें जाना है?
कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,
काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है।
कहीं कुंडली मार कर बैठ जाओ नक्षत्र-निलय में,
मत ले जाओ खींच निशा को आज सूर्य-वेदी पर।
रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;
एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,
एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूंघ लेने दो।

मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;
जनमा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में
बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है।
जिस प्रकार नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की,
और हिमालय की गाथा विदित महासागर को,
वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है,
भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं।

सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान खड़े हैं दिगायाम में जैसे,
एक साथ; त्यों काल-देवता के महान प्रांगण में,
भूत, भविष्यत, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं,
बातें करते हुए परस्पर गिरा-मुक्त भाषा में।
कहाँ देश, हम नहीं व्योम में जिसके गूँज रहे हैं,
कौन कल्प, हम नहीं तैरते हैं जिसके सागर में?
महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,
बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर।

उर्वशी
हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से,
भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में,
तैर रहे सम्पृक्त सभी वीचियों, कणों, अणुओं से।
समा रही धड़कनें उरों की अप्रतिहत त्रिभुवन में,
काल-रन्ध्र भर रहा हमारी सांसों के सौरभ से।
अंतर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?

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