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उर्वशी
उर्वशी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9729
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आईएसबीएन :9781613013434 |
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 4
औशीनरी
कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है।
जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है।
मदनिका
उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,
नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की।
वश में आई हुई वास्तु से इसको तोष नहीं है,
जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है।
नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर,
नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर।
करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल न्र को भाता है,
चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है।
ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है,
जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है
क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर,
ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर;
जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो
और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो,
प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में,
पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में।
औशीनरी
गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,
जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के
पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?
जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी।
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