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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 औशीनरी
 आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?
 जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है।
 
 निपुणिका
 मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है।
 जाते समय मंत्रियों से प्रभु ने यह बात कही है;
 ”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,
 प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे।”
 विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,
 यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के।
 
 औशीनरी
 इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है
 हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है
 जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,
 कब, किस पूर्वजन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था,
 जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,
 छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को।
 ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यों तरस नहीं खाती हैं,
 निज विनोद के हित कुल-वामाओं को तड़पाती हैं।
 जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,
 हँसी-हँसी में करती हैं आखेट नरों के मन का।
 किंतु, बाण इन व्याधिनियों के किसे कष्ट देते हैं?
 पुरुषॉ को दे मोद प्राण वे वधुओं के लेते हैं
 
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