ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
आपने ठीक लिखा है कि अध्यापक के शब्दों में बहुत ताकत होता है। दृढ़ इच्छा से कुछ भी कराया जा सकता है। मैंने कई छात्रों पर इसका प्रयोग किया। आपकी दया से सफलता मिली। उत्साह भी बढ़ा और अधिकारियों में शाख बढ़ी। प्रत्येक मास जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में होने वाली मासिक बैठक में मुझे शैक्षिक सलाहकार के रूप में बुलाया जाने लगा है।
गुरू जी एक बात मैं सच्चे मन से आपके सामने रखना चाहता हूँ। जब मैं छात्र था तो सोचता था गुरू जी सदैव बच्चों के पीछे पड़े रहते हैं? क्यों प्रतिदिन स्कूल आ धमकते हैं? कोई नेता क्यों नहीं मरता कि स्कूल की छुट्टी हो जाए? क्यों बार-बार परीक्षा का आतंक दिखाया जाता है? परन्तु आज ये सब बातें बेमानी लगती हैं। कैसी नादानी थी उन दिनों। आज अध्यापक बनने के बाद साफ-साफ समझ में आ रहा है। छात्रों को श्रेष्ठ बनाने के लिए अध्यापक को कुछ तो अंकुश लगाना ही पड़ता है। कच्चे घड़े की मानिंद एक ओर से हाथ का सहारा देकर पीटना पड़ता है। तभी तो घड़े का सुन्दर व उपयोगी रूप बनकर निकलता है।
विद्यार्थियों के साथ खेलना मैंने आपसे सीखा था। आपके साथ इस सुखद समाचार को भी बाँटना चाहता हूँ कि इस वर्ष हमारे विद्यालय की फुटबाल टीम ने जिलास्तरीय खेलों में प्रथम स्थान प्राप्त किया। हमारी टीम के पाँच छात्रों का चयन स्टेट में खेलने के लिए हुआ है। इन्हीं सफलताओं के कारण छात्र व अभिभावक मेरा बहुत सम्मान करते हैं। दूध, दही, लस्सी, अनाज, गुड़ न जाने क्या-क्या मेरे मना करने के बाद भी चुपचाप मेरे घर में रख जाते हैं। आपने सच लिखा था गुरू जी, यह सब मान-सम्मान और आनंद और किसी व्यवसाय में कहा------?
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