ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
|
9 पाठकों को प्रिय 344 पाठक हैं |
समकालीन कहानी संग्रह
जानते हो भरे बाजार में गुजरते हुए जब एक सेठनुमा शिष्य ने दुकान से निकलकर सबके सामने मेरे पाँव छुए तो मुझे बहुत खुशी मिली थी। मन हुआ था कि चिल्लाकर कहूँ-दुनियां वालो देखो, किसी भी व्यवसाय या नौकरी में इतना गौरव और सम्मान है जो आज मुझे अध्यापक बनने पर मिला है। अध्यापक दृढ़ संकल्प करके अपने मन में ठान ले तो कुछ भी बदल सकता है। अपने शिष्यों को बदलना तो बहुत आसान है क्योंकि वे तो कच्ची मिट्टी के बने हैं। परन्तु अध्यापक तो उनके माँ बाप को बदल सकता है क्योंकि अभिभावकों की चाबी (बच्चे) उसके हाथ में है। मालूम नहीं तुम्हें याद है कि नहीं जब मैं १९९८ में इस विद्यालय में आया था तो कई अध्यापक व बहुत सारे छात्र धूम्रपान करते थे। विद्यालय में एक माह तक संस्कार उत्सव चलाया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य धूम्रपान रोकना था। जब मैंने बच्चों के माध्यम से यह बात उनके घरों में भेजी कि जिनके परिवार में एक व्यक्ति भी धूम्रपान करता है तो परिवार के नन्हें-नन्हें बच्चों को भी ना चाहते हुए धूम्रपान करना पड़ता है। उनके अभिभावक ही उनके नाजुक फेफड़ों को को खराब कर रहें हैं। परिणाम जानने के लिए संस्कार उत्सव समापन पर अभिभावकों की प्रतिक्रिया जानी, तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। बच्चों ने जिद्द करके, प्रार्थना करके अपने घर में धूम्रपान बंद करवा दिया। स्कूल में धुंआ उड़ना वैसे ही बन्द हो गया। ऐसी अपूर्व शक्ति संजोए है अध्यापक।
प्रिय राधारमण मैं इसलिए अध्यापक बना कि साहित्य साधना के लिए प्रयाप्त समय और उपयुक्त वातावरण मिल जाएगा परन्तु अध्यापक बनने के बाद मैंने समझा कि अध्यापक के पास तो समय का बड़ा अभाव है। वह कितना भी कार्य करे वह पूरा हो ही नहीं सकता। साहित्य सृजन के लिए अंदर की कुलबुलाहट जो हिलोर मारकर कागज पर उतना चाहती थी वह छात्रों के साथ अभिव्यक्त होकर शान्त हो जाती, इसीलिए अध्यापक बनकर खूब लिखने का जो विचार था उसके लिए न मन ही तैयार होता और न समय ही मिलता।
|