ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
एकाएक बाँसुरी का बहुत मधुर स्वर कानों में आने लगा। साधारण 'रामप्रसादी' सुर था। कितनी ही दफे तो सुन चुका था, किन्तु बाँसुरी इस प्रकार मुग्ध कर सकती है, यह मैं न जानता था। हमारे मकान के दक्षिण-पूर्व के कोने में एक बड़ा भारी आम और कटहल का बाग था। कई हिस्सेदारों की सम्पत्ति होने के कारण कोई उसकी खोज-खबर नहीं लेता था, इसलिए पूरा बाग निबिड़ जंगल के रूप में परिणत हो गया था। गाय-बैलों के आने-जाने से उस बाग के बीच में से केवल एक पतली-सी पगडंडी बन गयी थी। ऐसा मालूम हुआ कि मानो उसी वन-पथ से बाँसुरी का सुर क्रमश: निकटवर्ती होता हुआ आ रहा है। बुआ उठकर बैठ गयीं और अपने बड़े लड़के को उद्देश्य कर बोलीं, “हाँ रे नवीन, यह बाँसुरी राय-परिवार का इन्द्र ही बजा रहा है न?” तब मैंने समझा कि इस बंसीधारी को ये सभी चीन्हते हैं। बड़े भइया ने कहा, “उस हतभागे को छोड़कर ऐसी दूसरा कौन बजायेगा और उस जंगल में ऐसा कौन है जो ढूँकेगा?”
“बोलता क्या है रे? वह क्या गुसाईं के बगीचे से आ रहा है?”
बड़े भइया बोले, “हाँ।”
ऐसे भयंकर अन्धकार में उस अदूरवर्ती गहरे जंगल का खयाल करके बुआ मन ही मन सिहर उठीं और डर भरे कण्ठ से प्रश्न कर उठीं, “अच्छा, उसकी माँ भी क्या उसे नहीं रोकती? गुसाईं के बाग में तो न जाने कितने लोग साँप के काटने से मर गये हैं - उस जंगल में इतनी रात को वह लड़का आया ही क्यों?”
बड़े भइया कुछ हँसकर बोले, “इसलिए कि उस मुहल्ले से इस मुहल्ले तक आने का वही सीधा रास्ता है। जिसे भय नहीं है, प्राणों की परवाह नहीं है, वह क्यों बड़े रास्ते से चक्कर काटकर आएगा माँ? उसे तो जल्दी आने से मतलब, फिर चाहे उस रास्ते में नदी-नाले हों - चाहे साँप-बिच्छू और बाघ-भालू हों!”
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