ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र बोला, “उस दिन वापिस आकर तूने बड़ी मार खाई - क्यों न श्रीकान्त? तुझे ले जाकर मैंने अच्छा काम नहीं किया। उसके लिए रोज मुझे बड़ा दु:ख होता है।” मैंने सिर हिलाकर कहा, “मार नहीं खाई।” इन्द्र खुश होकर बोला, “नहीं खाई? सुन रे श्रीकान्त, तेरे जाने के बाद मैंने काली माता को अनेक दफे पुकारा था जिससे तुझे कोई न मारे। काली माता बड़ी जागृत देवी हैं रे! उन्हें मन लगाकर पुकारने से कभी कोई मार नहीं सकता। माता आकर इस प्रकार भुला देती हैं कि कोई कुछ भी नहीं कर सकता।” ऐसा कहकर उसने बंसी को रख दिया और हाथ जोड़कर कपाल में लगा लिये, मानो उन्हीं को मन ही मन प्रणाम किया हो। फिर बंसी में चारा लगाकर उसे जल में डालते हुए वह बोला, “मुझे तो खयाल न था कि तुझे ज्वर आ जायेगा, यदि होता तो मैं वह भी न आने देता।”
मैंने आहिस्ते से प्रश्न किया, “क्या करते तुम?” इन्द्र बोला, “कुछ नहीं, सिर्फ जवाफूल (गुड़हल) लाकर माता के पैरों पर चढ़ा देता। उन्हें जवा फूल बड़े प्यारे हैं। जो जैसी कामना से उन्हें चढ़ाता है उसका वैसा ही फल होता है। यह तो सभी जानते हैं, क्या तू नहीं जानता?”
मैंने पूछा, “तुम्हारी तबियत तो नहीं बिगड़ी थी?”
इन्द्र ने आश्चर्य से कहा, “मेरी? मेरी तबियत कभी खराब नहीं होती। कभी कुछ नहीं होता।” वह एकाएक उद्दिप्त होकर बोला, “देख श्रीकान्त, मैं तुझे एक चीज सिखाए देता हूँ। यदि तू दोनों बेला खूब मन लगाकर देवी का नाम लिया करेगा, तो वे सामने आकर खड़ी हो जाँयगी - तू उन्हें स्पष्ट देख सकेगा। और फिर वे कभी तेरा बुरा न होने देंगी। तेरा कोई बाल भी बाँका न कर सकेगा - तू स्वयं जान जायेगा-फिर मेरी तरह मन चाहे वहाँ जाना, खुशी पड़े सो करना, फिर कोई चिन्ता नहीं। समझ में आया?”
मैंने सिर हिलाकर कहा, “ठीक है।” फिर बंसी में चारा लगाकर और उसे पानी में डालकर मृदु-कण्ठ से पूछा, “अब तुम किसे साथ लेकर वहाँ जाते हो?”
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