लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


यह नाम मैंने सुना था; कहा, “सतूया का टीला तो 'घोर' नाले के सामने है, वह तो बहुत दूर है।”

इन्द्र ने उपेक्षा के भाव से कहा, “कहाँ, बहुत दूर है? छ:-सात कोस भी तो न होगा! तैरते-तैरते यदि हाथ भर आवें तो चित्त होकर सुस्ता लेना; इसके सिवाय, मुर्दे जलाने के काम आए हुए बहुत-से बड़े-बड़े लक्कड़ भी तो बहते मिल जाँयगे।”

आत्म-रक्षा का जो सरल रास्ता था सो उसने दिखा दिया, उसमें प्रतिवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उस अंधेरी रात में, जिसमें दिशाओं का कोई चिह्न नजर न आता था, और उस तेज जल-प्रवाह में, जिसमें जगह-जगह भयानक आवत्त पड़ रहे थे, सात कोस तक तैरकर जाना और फिर भोर होने की प्रतीक्षा करते रहना! सवेरे से पहले इस तरफ के किनारे पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं। दस-पन्द्रह हाथ ऊँचा खड़ा हुआ बालू का कगारा है, जो टूटकर सिर पर आ सकता है,- और इसी तरफ गंगा का प्रवाह भीषण टक्करें लेता हुआ अर्ध्दवृत्ताकार दौड़ा जा रहा है।

वस्तुस्थिति का अस्पष्ट आभास पाकर ही मेरा विस्तृत वीर-हृदय सिकुड़कर बिन्दु जैसा रह गया। कुछ देर तक डाँड़ चलाकर मैं बोला, “किन्तु हमारी नाव का क्या होगा?”

इन्द्र बोला, “उस दिन भी मैं ठीक इसी तरह भागा था, और उसके दूसरे ही दिन आकर नाव निकाल ले गया था - कह दिया था कि घाट पर से डोंगी चोरी करके कोई और ले आया होगा - मैं नहीं लाया।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book