लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9718
आईएसबीएन :9781613012826

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

198 पाठक हैं

प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा


कार्यकर्त्ताओं की दुर्दशा


इस समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी। चने मिलना भी कठिन था। सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था। किसी के पास साबुत कपड़े तक न थे। कुछ विद्यार्थी बन कर धर्म क्षेत्रों तक में भोजन कर आते थे। चार-पांच ने अपने-अपने केन्द्र त्याग दिये। पांच सौ से अधिक रुपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था। यह दुर्दशा देख मुझे बड़ा कष्ट  होने लगा। मुझसे भी भरपेट भोजन न किया जाता था। सहायता के लिए कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किन्तु कोरा उत्तर मिला। किंकर्त्तव्यविमूढ़ था। कुछ समझ में न आता था। कोमल-हृदय नवयुवक मेरे चारों ओर बैठकर कहा करते, "पण्डित जी, अब क्या करें?" मैं उनके सूखे-सूखे मुख देख बहुधा रो पड़ता कि स्वदेश सेवा का व्रत लेने के कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही है ! एक एक कुर्ता तथा धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबुत होती। लंगोट बांध कर दिन व्यतीत करते थे। अंगोछे पहनकर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे।

मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था। इन लोगों की यह दशा देखकर मुझे दूध पीने का साहस न होता था। मैं भी सबके साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था। मैंने विचार किया कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्टू करके उन्हें कहां भेजा जाये। जब समिति का सदस्य बनाया था, तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बधाई थीं। कईयों का पढ़ना-लिखना छुड़ा कर इस काम में लगा दिया था। पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता। बुरा फँसा। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता था। अन्त में धैर्य धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने का निश्च य किया।

इसी बीच में बंगाल आर्डिनेंस निकला और गिरफ्तारियां हुईं। इनकी गिरफ्तारी ने यहां तक असर डाला कि कार्यकर्त्ताओं में निष्क्रियता के भाव आ गये। क्या प्रबन्ध किया जाये, कुछ निर्णय नहीं कर सके। मैंने प्रयत्नय किया कि किसी तरह एक सौ रुपया मासिक का कहीं से प्रबन्ध हो जाए। प्रत्येक केन्द्र के प्रतिनिधि से हर प्रकार से प्रार्थना की थी कि समिति के सदस्यों से कुछ सहायता लें, मासिक चन्दा वसूल करें पर किसी ने कुछ न सुनी।

कुछ सज्जनों ने व्यक्तिसगत प्रार्थना की कि वे अपने वेतन मं  से कुछ मासिक दे दिया करें। किसी ने कुछ ध्यान न दिया। सदस्य रोज मेरे द्वार पर खड़े रहते थे। पत्रों की भरमार थी कि कुछ धन का प्रबन्ध कीजिए, भूखों मर रहे हैं। दो एक को व्यवसाय में लगाने का इन्तजाम भी किया। दो चार जिलों में काम बन्द कर दिया, वहां के कार्यकर्त्ताओं से स्पष्टक शब्दों में कह दिया कि हम मासिक शुल्क नहीं दे सकते। यदि निर्वाह का कोई दूसरा मार्ग हो, और उस ही पर निर्भर रह कर कार्य कर सकते हो तो करो। हमसे जिस समय हो सकेगा देंगे, किन्तु मासिक वेतन देने के लिए हम बाध्य नहीं। कोई बीस रुपये कर्ज के मांगता था, कोई पचास का बिल भेजता था, और कईयों ने असन्तुष्टं होकर कार्य छोड़ दिया। मैंने भी समझ लिया - ठीक ही है, पर इतना करने पर भी गुजर न हो सकी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book