ई-पुस्तकें >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
बड़े परिश्रम के साथ मैंने एक पुस्तक 'क्रान्तिकारी जीवन' लिखी। 'क्रान्तिकारी जीवन' को कई प्रकाशकों ने देखा, पर किसी का साहस न हो सका कि उसको प्रकाशित करें ! आगरा, कानपुर, कलकत्ता इत्यादि कई स्थानों में घूम कर पुस्तक मेरे पास लौट आई। कई मासिक पत्रिकाओं में 'राम' तथा 'अज्ञात' नाम से मेरे लेख प्रकाशित हुआ करते थे। लोग बड़े चाव से उन लेखों का पाठ करते थे। मैंने किसी स्थान पर लेखन शैली का नियमपूर्वक अध्ययन न किया था। बैठे-बैठे खाली समय में ही कुछ लिखा करता और प्रकाशनार्थ भेज दिया करता था। अधिकतर बंगला तथा अंग्रेजी की पुस्तकों से अनुवाद करने का ही विचार था। थोड़े समय के पश्चाकत श्रीयुत अरविन्द घोष की बंगला पुस्तक 'यौगिक साधन' का अनुवाद किया। दो-एक पुस्तक-प्रकाशकों को दिखाया पर वे अति अल्प पारितोषिक देकर पुस्तक लेना चाहते थे। आजकल के समय में हिन्दी के लेखकों तथा अनुवादकों की अधिकता के कारण पुस्तक प्रकाशकों को भी बड़ा अभिमान हो गया है। बड़ी कठिनता से बनारस के एक प्रकाशक ने 'यौगिक साधन' प्रकाशित करने का वचन दिया।
पर थोड़े दिनों में वह स्वयं ही अपने साहित्य मन्दिर में ताला डालकर कहीं पधार गए। पुस्तक का अब तक कोई पता न लगा। पुस्तक अति उत्तम थी। प्रकाशित हो जाने से हिन्दी साहित्य-सेवियों को अच्छा लाभ होता। मेरे पास जो 'बोलशेविक करतूत' तथा 'मन की लहर' की प्रतियां बची थीं, वे मैंने लागत से भी कम मूल्य पर कलकत्ता के एक व्यक्तिक श्रीयुत दीनानाथ सगतिया को दे दीं। बहुत थोड़ी पुस्तकें मैंने बेची थीं। दीनानाथ महाशय पुस्तकें हड़प कर गए। मैंने नोटिस दिया। नालिश की। लगभग चार सौ रुपये की डिग्री भी हुई, किन्तु दीनानाथ महाशय का कहीं पता न चला। वह कलकत्ता छोड़कर पटना गए। पटना से भी कई गरीबों का रुपया मार कर कहीं अन्तर्धान हो गए। अनुभवहीनता से इस प्रकार ठोकरें खानी पड़ीं। कोई पथ-प्रदर्शक तथा सहायक नहीं था, जिस से परामर्श करता। व्यर्थ के उद्योग धन्धों तथा स्वतन्त्र कार्यों में शक्ति का व्यय करता रहा।
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