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रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9718
आईएसबीएन :9781613012826

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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा

सन् 1916 ई० में लाहौर षड्यंत्र का मामला चला। मैं समाचार पत्रों में उसका सब वृत्तांत बड़े चाव से पढ़ा करता था। श्रीयुत भाई परमानन्द से मेरी बड़ी श्रद्धा थी, क्योंकि उनकी लिखी हुई 'तवारीख हिन्द' पढ़कर मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। लाहौर षड्यंत्र का फैसला अखबारों में छपा। भाई परमानन्द जी को फांसी की सजा पढ़कर मेरे शरीर में आग लग गई। मैंने विचारा कि अंग्रेज बड़े अत्याचारी हैं, इनके राज्य में न्याय नहीं, जो इतने बड़े महानुभाव को फांसी की सजा का हुक्म दे दिया। मैंने प्रतिज्ञा की कि इसका बदला अवश्य लूंगा। जीवन-भर अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्नू करता रहूंगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर चुकने के पश्चा्त् मैं स्वामीजी के पास आया। सब समाचार सुनाए और अखबार दिया। अखबार पढ़कर स्वामीजी भी बड़े दुखित हुए। तब मैंने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में कहा। स्वामीजी कहने लगे कि प्रतिज्ञा करना सरल है, किन्तु उस पर दृढ़ रहना कठिन है। मैंने स्वामीजी को प्रणाम कर उत्तर दिया कि यदि श्रीचरणों की कृपा बनी रहेगी तो प्रतिज्ञा पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि न करूंगा।

उस दिन से स्वामीजी कुछ-कुछ खुले। आप बहुत-सी बातें बताया करते थे। उसी दिन से मेरे क्रान्तिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ। यद्यपि आप आर्य-समाज के सिद्धान्तों को सर्वप्रकारेण मानते थे, किन्तु परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ तथा महात्मा कबीरदास के उपदेशों का वर्णन प्रायः किया करते थे।

धार्मिक तथा आत्मिक जीवन में जो दृढ़ता मुझ में उत्पन्न हुई, वह स्वामीजी महाराज के सदुपदेशों का ही परिणाम हैं। आपकी दया से ही मैं ब्रह्मचर्य-पालन में सफल हुआ। आपने मेरे भविष्य-जीवन के सम्बन्ध में जो-जो बातें कहीं थीं, अक्षरशः सत्य हुईं। आप कहा करते थे कि दुःख है कि यह शरीर न रहेगा और तेरे जीवन में बड़ी विचित्र-विचित्र समस्याएँ आयेंगीं, जिनको सुलझाने वाला कोई न मिलेगा। यदि यह शरीर नष्टे न हुआ, जो असम्भव है, तो तेरा जीवन भी संसार में एक आदर्श जीवन होगा। मेरा दुर्भाग्य था कि जब आपके अन्तिम दिन बहुत निकट आ गए, तब आपने मुझे योगाभ्यास सम्बन्धी कुछ क्रियाएं बताने की इच्छा प्रकट की, किन्तु आप इतने दुर्बल हो गए थे कि जरा-सा परिश्रम करने या दस-बीस कदम चलने पर ही आपको बेहोशी आ जाती थी। आप फिर कभी इस योग्य न हो सके कि कुछ देर बैठ कर कुछ क्रियाऐं मुझे बता सकते। आपने कहा था, मेरा योग भ्रष्ट् हो गया। प्रयत्ना करूंगा, मरण समय पास रहना, मुझ से पूछ लेना कि मैं कहाँ जन्म लूंगा। सम्भव है कि मैं बता सकूँ। नित्य-प्रति सेर-आध-सेर खून गिर जाने पर भी आप कभी भी क्षुब्ध न होते थे। आपकी आवाज भी कभी कमजोर न हुई। जैसे अद्वितीय आप वक्ताआ थे, वैसे ही आप लेखक भी थे। आपके कुछ लेख तथा पुस्तकें आपके एक भक्त  के पास थीं जो यों ही नष्ट  हो गईं। कुछ लेख आपने प्रकाशित भी कराए थे। लगभग 57 वर्ष की उम्र में आपने इहलोक त्याग दिया।

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