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पिया की गली

कृष्ण गोपाल आबिद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9711
आईएसबीएन :9781613012550

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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण


और फिर जानते हो कैसे बची? तुम्हारे भाई नन्दी के अनथक कोशिशों से। हाँ स्वामी, यह शरारती नन्दी तो एक बार फिर मुझे इस जीवन पथ पर घसीट लाया है।

कहते हैं नन्दी बहुत रोया। उसने न दिन देखा न रात। एक पल भी आराम न किया। मेरे बिस्तर से लगा रहा। मेरी एक-एक बात का ध्यान रखा। यहाँ के लोग कहते हैं कि कोई भी दूसरा मेरी इतनी सेवा नहीं कर सकता था। अपने आपको तो भूल ही बैठा वह पागल। औऱ अपने जीवन की बाज़ी लगा दी उसने।

दीदी कहती है भगवान ही ने नन्दी को भेजा था। वरना मैं इस बार बच नहीं पाती। ओफ ! इतनी खोफनाक बीमारी। मैं स्वयं सोचती हूँ कि मैं इस तूफान के चंगुल से निकल कैसे पाई? स्वयं तो बेसुध रही, हाँ जब कभी आँखें खुलीं नन्दी को ही अपने पास गया। बिखरे बाल, बढ़ी हुई दाढी़, मैले कप़डें।

उसनें किसी की एक न सुनी औऱ मेरे बिस्तर के करीब से एक पल के लिए भी दूर न हुआ।

औऱ जानते हो तुम्हारे इस नन्दी ने यहाँ सबका दिल जीत लिया है।

यहाँ अभी-अभी मेरे पास बैठा था तो अपनी मोटी-मोटी आँखों से मुझे ही देख रहा था, "भाभी तुम मेरे कालेज की चिन्ता न करो। पिताजी नाराज होंगे, होने दो। मैंने उन्हें लिख दिया है कि भाभी बहुत बीमार हैं। ऐसी हालत में न मैं उन्हें ला सकता हूँ औऱ न स्वयं ही आ सकता हूँ। जब वह अच्छी हो जायेंगी, हम दोनों आ जायेंगे।"

मैं क्या कहती? मुझे तो पगला कुछ कहने ही नहीं देता। बिस्तर से नीचे तो पैर तक नहीं रखने देता। उसकी किसी बात के विरुद्ध कुछ करने की शक्ति तो मुझमें है ही नहीं।

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