लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> पिया की गली

पिया की गली

कृष्ण गोपाल आबिद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9711
आईएसबीएन :9781613012550

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

12 पाठक हैं

भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण


मेरे निर्दयी राजा,

क्या इतनी जल्दी भूल गये? इतने सारे वचन?

याद है एक दिन मेरे होठों की सौगन्ध खा कर तुमने कहा था, सुधा यूं लगता है कि तुम इन दस बीस दिनों से ही मेरे पास नहीं हो बल्कि चिर-काल से हम तुम एक हैं। कई जन्मों से हमारा सम्बन्ध है। बार-बार आपस में मिले हैं। बार-बार एक दूसरे के हुए हैं। बार-बार बिछुडे़ हैं। फिर मिले हैं। फिर बिछुड़े हैं। शरीर कभी-कभी दूर जरूर हुआ है परन्तु आत्मा तो सदैव एक रही हैं।"

उस दिन मैं लजा गई थी।

मैं सब कुछ भूल गई थी। अपना आपा भूल गई थी, अपना अतीत भूल गई थी, अपना अस्तित्व भूल गई थी। कुछ भी याद न रहा था।

याद रहा था तो केवल यही याद रहा था कि केवल तुम हो, मैं हूँ, हम दोनों हैं। और एक भाव हैं, एक विचार हैं, एक कल्पना हैं, एक मंजिल है और शेष सारी सृष्टि नज़रों से ओझल हो गई गई है।

उस समय भी मैं चुपचाप सो रही थी। मेरा सारा शरीर एक हल्की-हल्की आंच की तृप्ति में सुलग रहा था औऱ तब बहुत कोमलता से तुमने मेरे होठों के पास कहा था "है न?"

मैं नहीं जानती मेरे होठों ने कुछ कहा था या तुम्हारे होठों ने स्वयं प्रश्न किया था, और स्वयं ही उत्तर दिया था।

दोनों होंठ एक दूसरे के इतने समीप थे, इस तरह एक थे कि कुछ भी पता न चला था कि किसने क्य़ा कहा और तब एक ही आवाज दोनों आत्माओं अनुभव की थी औऱ वह आवाज थी "मेरे प्राण........ तुम .......... मेरे प्राण।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book