ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
|
1 पाठकों को प्रिय 12 पाठक हैं |
भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
और फिर हँसियाँ।
अनगिनत हँसियाँ।
मिली-जुली-एक दूसरे से लिपटी, जैसे सारी सृष्टि हँस रही हो..।
अचानक कहीं से गीत सुनाई देने लगे हैं। लपक-लपक कर स्वागत कर रहे हैं।
परन्तु अब की बोल बदल गए हैं। लय बदल गई है। स्वर बदल गये हैं। उनमें अब आँसूओं का मिश्रण नही है, दर्द के नाले नहीं है, जुदाई के गीत नहीं हैं, बाबुल के बोल नहीं हैं। यह तो अनोखे गीत हैं।
विजय के उपलब्धि के भाव हैं।
मिलने के नये बोल, नयी प्रातः के प्रतिनिधि हैं यह गीत।
यह क्या है?
एक साथ ही इतने दुख और इतने सुख क्यों होते है कि उसका भी जी चाहने लगा है आँखें खोल ले और आँसू पोंछ ले और आस-पास देखे।
उसने आँखें खोल ली और आँसू पोंछ लिये और आस-पास देखने की चेष्टा की।
लम्बे घूंघट के कोने से देखा।
दो हाथ उसे सहारा देने के लिए आगे बढे़।
|