ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
इसी प्रकार न जाने कितनी बातें उसके हृदय को आलोड़ित करती रहीं। अचानक ट्रेन की गति धीमी पड़ने पर उसे चेत हुआ। जल्दी से आंखें पोंछकर उसने देखा-स्टेशन आ गया था।
बचपन से ही स्त्रियों के प्रति अपूर्व के मन में श्रद्धा की अपेक्षा घृणा की भावना ही अधिक थी। भाभियां मजाक करतीं तो वह मन-ही-मन दु:खी होता। घनिष्ठता बढ़ाने आतीं तो दूर हट जाता। मां के अतिरिक्त और किसी के सेवा या देखभाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। किसी लड़की के परीक्षा में पास होने के समाचार से उसे प्रसन्नता नहीं होती थी। यूरोप में स्त्रियां कमर कसकर राजनीतिक अधिकार पाने के लिए लड़ रही थीं। अखबारों में उनके समाचार पढ़कर उसका शरीर जलने लगता था। लेकिन उसका हृदय स्वभाव से ही भद्र और कोमल था। वैसे वह नर-नारी का भेद न मानकर प्राणीमात्र को अत्यंत प्रेम करता था। किसी को तनिक-सा भी कष्ट देने में उसे हिचक होती थी। इसीलिए भारती को अपराधी जानते हुए भी उसने दंडित नहीं होने दिया। पुरुषों में स्त्री के संबंध में जो कमजोरियां होती हैं वह उसे छू तक नहीं गई थी। इस ईसाई लड़की को दंड देना उसके स्वभाव के विरुद्ध था। नारी जाति के प्रति अनुराग न रखते हुए भी उसका मन भारती को आसानी से बहुत दिनों तक दूर हटाकर रख सकेगा, यह भी सच नहीं था। फिर भी इस निर्भय, मिथ्यावादिनी युवती के प्रति उसके मन में राग-द्वेष की सीमा नहीं थी।
उसे मामो आए पंद्रह दिन हो गए हैं। यहां से कल-परसों तक मिक्थिला जाने की बात है। ऑफिस से लौटकर बरामदे में बैठा मन-ही-मन सोचने लगा। नारी स्वाधीनता के संबंध में उसका मन अपनी सम्मति देना नहीं चाहता था। इसमें मंगल नहीं है। यह धारणा उसकी रुचि तथा संस्कार पर आधारित थी। शास्त्रीय अनुशासनों में भी इनके प्रति गम्भीर अन्याय है इस सत्य को भी उसका न्याय परायण मन किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता था। लेकिन आज जिस कारण अचानक ही उसकी यह धारणा मिट गई, उसका विवरण इस प्रकार है-
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